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पत्र : डॉक्टर प्राणजीवन मेहताको


और परोक्ष रूपसे भेदभाव अवश्य है, जो कभी-कभी, जैसा कि वर्तमान मामले में लक्षित है, सतहपर आ जाता है। यदि श्री जर्बर यूरोपके किसी दूसरे भागसे आये हुए प्रवासी होते और उनका सम्बन्ध किसी अन्य जातिसे होता तो बहुत सम्भव है उनके प्रति प्रवासी अधिकारीका बर्ताव ऐसा कठोर न होता। परन्तु जैसा व्यवहार उनके साथ हुआ है वैसा माह-दर-माह बीसों भारतीयोंके साथ होता रहता है और उसकी कोई चर्चा नहीं होती। हम जानते हैं कि संघ-सरकारकी निश्चित नीति एशियाई प्रवासको नियन्त्रित करनेकी है। परन्तु संघके प्रवासी कानूनके अनुसार प्रवासके पूर्ण हकदार व्यक्तियोंको वापस भेज देना नियन्त्रणको नीतिका अंग कदापि नहीं हो सकता और न होना चाहिए। दूसरे शब्दोंमें, हम मांग करते हैं कि जो इस देशमें आना चाहते हैं, वे किसी भी कौम या रंगके क्यों न हों, उन सबके पक्षमें का व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिए और उसके अमलमें भी उतनी ही उदारता बरतनी चाहिए। हम सर जॉन बुकाननके फैसलेका स्वागत करते हैं; क्योंकि उससे प्रकट है कि कुछ भी हो, न्यायालय तो साधारणतः प्रचलित पूर्वग्रहोंसे अपनेको प्रभावित नहीं होने देंगे और कानूनका अर्थ मानवीय स्वतन्त्रताके पक्षमें लगाते हुए नहीं हिचकेंगे। अदालतने सरकारसे अर्जदारको खर्च भी दिलाया है और हम आशा करते हैं कि यह सजा सरकारके भविष्यके कामोंपर अंकुशका काम करेगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-१०-१९११

१४०. पत्र : डॉक्टर प्राणजीवन मेहताको

टॉल्स्टॉय फार्म
लॉली स्टेशन
ट्रान्सवाल
आश्विन बदी ० [२२ अगस्त, १९११]

भाई श्री ५ प्राणजीवन,

आपका यूरोपसे लिखा हुआ अन्तिम पत्र मिला था।

हरिलालको मैं तो प्रसंग आनेपर लिखा ही करता हूँ कि उसे जो परीक्षाका मोह है सो ठीक नहीं है। यदि वह आपको पत्र लिखे तो आप भी उसे ऐसा ही लिखें। इतनेपर भी यदि वह अपनी ज़िद नहीं छोड़ता तो मुझे अपने पापकी यह सजा भोगनी ही होगी।

लोग चाहे जो सोचें, अकालके इस अवसरपर आपका भारत पहुँचना जरूरी है। मेरा निकलना तो कैसे हो सकता है? अगला बरस खत्म होने तक मेरा निकलना सम्भव नहीं जान पड़ता।

१. यह पत्र १९११ ही में लिखा गया था, इसकी पुष्टि कांग्रेसके अध्यक्ष बननेके निमन्त्रण और अकाल, इन दोनोंके उल्लेखसे होती है।