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१५६. एक पत्रका अंश[१]

टॉल्स्टॉय फार्म
लॉली स्टेशन
ट्रान्सवाल
[नवम्बर २७, १९११के बाद ]

[२]

...स्वार्थी हो गई है। हमारे शिक्षकोंने निकृष्ट शिक्षा देकर हमें नीचे गिराया है। किन्तु यह कहना भी गलत है। जैसे हम वैसे हमारे शिक्षक !

हमारे पुरोहित भी बेचारे नामके ही महेश्वर या हरजीवन होते हैं। ब्रह्म क्या चीज है, सो तो वे जरा भी नहीं जानते। हमने उनसे विशेष अपेक्षा भी नहीं की। फिर मिले कहाँसे? ईश्वर परम-आत्मा है । आत्माका भी अस्तित्व है और उसका मोक्ष भी सम्भव है। पाप और पुण्य' होते हैं। मोक्ष इहलोकमें भी सम्भव है। इस सबकी प्रतीति हो जानेपर हमें खोज करते ही जाना चाहिए। यह माननेका रत्ती भर भी कारण नहीं है कि जो कुछ चला आता है वह परम्परागत होनेसे ही ठीक है या कोई काम मात्र इसलिए उचित है कि हमारे पूर्वज उसे करते रहे हैं। यह दृष्टिकोण आत्माकी स्वतन्त्रताकी कल्पनाके विरुद्ध है। हमारी पुरानी बातोंमें बहुत-सी बातें अच्छी है ; किन्तु जैसे अग्निके साथ धुआँ मिला होता है वैसे ही पुरानी अच्छाईके साथ कुछ बुराई भी रहती है। उसका पृथक्करण करके हमें तत्व' निकाल लेना चाहिए। ज्ञानका मर्म इसीमें निहित है।

भाई कॉडिजने जो स्वयं ही पत्र[३] लिखा है वह तो...

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ५६६५) से।

सौजन्य : श्रीमती राधाबेन चौधरी।

 
  1. पत्रके विषयसे प्रतीत होता है कि यह १९११ या १९१२ में लिखा गया होगा, जब गांधीजी शिक्षा-सम्बन्धी प्रयोगोंमें रत थे।
  2. इस पत्रांशको अन्तिम अधूरी पंक्तिसे जान पड़ता है कि इसके पीछे मद्राससे कॉर्डिज द्वारा लिखे पत्र (देखिए परिशिष्ट १०)की प्रेरणा रही होगी, गांधीजीने इससे पहले उन्हें थिऑसफीसे विमुख करनेका प्रयास किया था (देखिए "पत्र : डॉ० प्राणजीवन मेहताको", पृष्ठ ६४), किन्तु जैसा कि कॉडिजके पत्रसे शात होता है, इसमें वे असफल रहे थे। कॉडिजने अपने पत्रके साथ जो न्यासपत्र (ट्रस्टडीड) भेजा था, उसपर उन्होंने १२ नवम्बरको अपने हस्ताक्षर किये थे और गवाही दी थी। अगर हम यह मान लें कि उस पत्रको डाक द्वारा मद्राससे दक्षिण आफ्रिका पहुँचनेमें १५ दिन लगे होंगे तो यह पत्र, जो शायद फीनिक्स आश्रमके किसी व्यक्तिके नाम है, अवश्य ही २७ नवम्बर, १९११ के बाद लिखा गया होगा।
  3. देखिए परिशिष्ट १० ।