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एक लज्जाजनक कृत्य

बनाये रखने के अपने उत्तरदायित्वका त्याग कर रही है। यह पत्र परम्परासे विभुख होने का एकमात्र उदाहरण नहीं है, बल्कि यह तो उससे दूर हटतेकी उस प्रक्रिया में एक और कदम है जिसे साम्राज्यके शुभ-चिन्तक बहुत दुःखके साथ काफी समय से देख रहे हैं। हम कामना तो कर ही सकते हैं कि पूर्ण निष्पक्षताकी वह पुरानी और निर्भीक नीति फिरसे अपनाई जायेगी जो साम्राज्य के केन्द्र-स्थलमें उस समय प्रचलित थी जब उसके स्वार्थीको किसी प्रकारका खतरा नहीं था ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-१२-१९११

१६८. एक लज्जाजनक कृत्य

गत सप्ताह हमने नाथलियाके मुकदमेकी[१] जो संक्षिप्त रिपोर्ट प्रकाशित की थी, उससे भारतीय समाजके हर सदस्यका मन उसी प्रकार खिन्न हो उठा है जिस प्रकार इस मामले पर निर्णय सुनानेवाले जजोंका । जज किसी अन्यायको अन्याय मान कर भी न्याय नहीं कर सकें तो यह बात अदालतोंकी उपयोगिताके बारेमें निराश हो बैठनेके लिए पर्याप्त है । स्वर्गीय श्री लियोनार्ड कहा करते थे, और इसमें उनका विश्वास भी था, कि ऐसा कोई अन्याय नहीं है जिसका कानूनी प्रतिकार न किया जा सके । यही वह मोहक भ्रान्ति है जिसके बलपर कुछ उत्तम बुद्धिवाले लोग उस पेशेको चलाते रहना चाहते हैं जिसका उज्ज्वल पक्ष शायद ही कोई हो ।

नवयुवक नाथलियाके इस मामलेकी इतिश्री वहीं नहीं मानी जा सकती जहाँ नेटालके जजोंने उसे छोड़ा है। यह एक राष्ट्रीय कलंककी बात है कि प्रमाण प्रस्तुत करनेके बाद भी इस तरुणको प्रान्तमें प्रवेश नहीं दिया गया। इन प्रमाणोंसे उस स्वेच्छाचारी प्रवासी अधिकारीको छोड़कर, जिसके पास किसी मामलेपर पूर्वग्रहसे दूर रहकर, न्यायकी दृष्टिसे, विचार करनेका अवकाश ही नहीं है, अन्य कोई भी व्यक्ति सन्तुष्ट हो गया होता। उसका धन्धा ही ऐसा है जिसमें न्याय-दृष्टिसे विचार करना वर्जित है । इसलिए दोष उस व्यक्तिका नहीं, बल्कि विधानमण्डलका है, जिसने धृष्टतापूर्वक उसके ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी लाद दी है जिसका निर्वाह कोई साधारण मनुष्य कर ही नहीं सकता । कानूनमें उसे “प्रवासी प्रतिबन्धक अधिकारी" कहा जाता है । उसकी नियुक्ति एक प्रतिबन्धक कानूनको असल देनेके लिए की गई

  1. ई० एम० नावलियाको दो बार भारत वापस भेजा गया। दूसरी बार जब वह लौटा तब वह अपने साथ इस बात के प्रमाणसे सम्बन्धित दस्तावेज आदि ले आया था कि वह जिस व्यक्तिको अपना पिता बता रहा था और जिसके साथ रहनेको वह नेटाल आया था सचमुच वही उसका पिता था। किन्तु प्रवासी अधिकारीको इनसे सन्तोष नहीं हुआ, और उसने नाथलियाको जहाजसे उतरने की अनुमति नहीं दी। इसपर जजने कहा कि अधिकारी तो, लगता है, यह माननेको तैयार ही नहीं है कि कोई लड़का अपने बापका बेटा हो सकता है । फिर भी उसने इस मामले में हस्तक्षेप करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की, क्योंकि प्रवासी अधिकारीको इस सम्बन्धमें पूरी सत्ता प्राप्त थी । इंडियन ओपिनियन, २३-१२-१९११ ।