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१७८. पत्र : ई० एफ० सी० लेनको

[जोहानिसबर्ग ]
[१]जनवरी २९, १९१२

प्रिय श्री लेन,

मेरा खयाल है कि असाधारण 'गज़ट' की वह प्रति जिसमें प्रवासी विधेयक[२]दिया गया है आपके सहज सौजन्यसे ही प्राप्त हुई है। मुझे मालूम हुआ है कि केन्द्रीय समाचार एजेंसीको 'गज़ट' का यह अंक अभीतक नहीं मिला है।

देखता हूँ कि विधेयककी जो प्रति मैंने लगभग एक महीने पहले देखी थी, उससे असाधारण गजट में प्रकाशित विधेयक कुछ हद तक भिन्न है । मैं नहीं जानता कि जिन परिवर्तनोंको[३]और मैंने जरूरी बताया था उन्हें दाखिल करनेका जनरल स्मट्सका इरादा है या नहीं । खण्ड ५ के उपखण्ड (च)[४](छ)[५] सर्वथा नये हैं और मेरी राय में न्यायके सिद्धान्तोंके सर्वथा विरुद्ध हैं । यह बात बिलकुल बेतुकी लगती है कि जिस प्रवासी अधिकारीको न कानूनी प्रशिक्षण मिला है और न जिसमें

 
  1. अपनी सन् १९१२ की डायरीके अनुसार गांधीजी इस तारीखको जोहानिसबर्ग में थे ।
  2. सन् १९११ का -संघ प्रवासी प्रतिबन्धक विधेयक उसी साल अप्रैलमें वापस ले लिया गया था; देखिए परिशिष्ट २ । यहाँ उस नये विधेयकका उल्लेख है जो भारतीयोंकी आपत्तियोंको दूर करनेके खयालसे तैयार किया गया था; उद्धरणोंके लिए देखिए परिशिष्ट १३ । यह नया विधेयक गांधीजीको, गजटमें प्रकाशित होनेके पूर्व २२ दिसम्बर, १९११ को, जब वे लेनसे मिले थे, दिखाया गया। देखिए "तार : गृहमन्त्रीके निजी सचिवको ", पृष्ठ १९७ । इस विधेयक में जो अन्य परिवर्तन किये गये वे इस तारीखके वादके थे !
  3. देखिए " पत्र : ई०एफ० सी० लेनको ", पृष्ठ ९-१० ।
  4. खण्ड ५ (च) उन व्यक्तियोंको परिभाषित करता था जो निषिद्ध प्रवासी नहीं थे और जो, यदि खण्ड ४ उनके आड़े न आये तो, संघकी सीमा में प्रवेश कर सकते थे । खण्ड ४ में निषिद्ध प्रवासियों के प्रकारोंका विवरण था । हरएक भावी प्रवेशार्थीके लिए यह लाजिमी था कि वह प्रवासी अधिकारी द्वारा चुनी हुई भाषामें लेखनकी परीक्षा पास करे (परिशिष्ट १३) और इस बारे में भी उसकी दिलजमई करे कि वह निषिद्ध प्रवासी नहीं हुआ है ।
  5. जो एशियाई अपना प्रवेशाधिकार सिद्ध कर चुके हों, उनकी सन्तान या पत्नी होनेके आधारपर यदि कोई प्रवेशका दावा पेश करे तो खण्ड ५ (छ) प्रवासी अधिकारीको उससे उक्त रिश्तेका प्रमाण भाँगनेकी सत्ता देता था । उसे यह सत्ता प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम (१९०३ के नियम ३०) के संशोधित रूप १९०६ के अधिनियमके ३ से प्राप्त हुई थी। सर्वोच्च न्यायालयकी नेटाल शाखाके न्यायमूर्ति श्री ड्यूक विल्सनने नायलिया के मुकदमेका फैसला सुनाते हुए यह स्वीकार किया था कि प्रवासी प्रतिबन्धक अधिकारीको स्पष्टतया अनियन्त्रित विवेकाधिकार दे दिया गया था। - (इंडियन ओपिनियन, ३-२-१९१२ ) प्रवासी अधिकारियोंको अपनी दिलजमईके विचारसे इस बात की जानकारी हासिल कर लेनेका हक भी दिया गया था कि वे पत्नियों कहीं " निषिद्ध प्रवासियों" के दायरेमें तो नहीं आ जातीं; देखिए “भारतीय पत्नियाँ", पृष्ठ ११५-१६ और “एक क्षोभकारी मामला ", पृष्ठ १५३-५४ ।