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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

शिकायत यह है कि शिक्षाकी जो नई मनमानी कसौटी रखी जा रही है उसके कारण मुनीमों और कारकूनोंकी हैसियतके शिक्षित भारतीयोंको व्यवहारतः निषिद्ध प्रवेशार्थी ठहरा दिया जायेगा । विधेयकके इस भागपर गत मासकी ३१ तारीखके 'स्टार' ने जो टिप्पणी[१] दी है वह बहुत उपयुक्त है। आशा की जा सकती है कि नेटाल भारतीय कांग्रेस और केप ब्रिटिश भारतीय यूनियनने ठीक समयपर जो विरोध प्रकट किया है उसे सरकार सहानुभूतिपूर्वक सुनेगी और उस अनिष्टकारी परिस्थितिको उत्पन्न नहीं होने देगी जो अवश्यम्भावी है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन,१०-२-१९१२

१९२. अकाल निवारण कोषकी पहली किस्त[२]

हम अकाल निवारण कोषकी पहली किस्त डॉ० प्राणजीवनदास मेहताको भेज चुके हैं । हमने उन्हें १०० पौंडकी हुंडी भेजी है । चन्दा देनेवालोंने जो सुझाव दिये थे, वे भी हमने डॉ० मेहताको सूचित कर दिये हैं । यहाँके भारतीय डॉ० मेहतासे अपरिचित नहीं है । जहाँ अकाल है, उनका विचार वहीं जाकर पैसा खर्च करनेका है। इसलिए हमें लगता है कि हम इस पैसेका अच्छेसे अच्छा उपयोग डॉ० मेहताके द्वारा ही कर सकते हैं।[३]इसके सिवा विशेष कार्योंके लिए अथवा विशेष स्थानों में खर्च करनेके सम्बन्धमें हमें आजतक जो-जो सुझाव मिले हैं और जो आगे भी मिलेंगे, हम डॉ० मेहता से उन सबको अच्छी तरह कार्यान्वित करवा सकते हैं ।

इस चन्देके विषयमें जो सवाल उठे हैं, उनका जवाब भी यहीं दे देना ठीक मालूम होता है। हमने जो कोष खोला है, चन्दा देनेवालोंने उस पैसेका उपयोग हमपर छोड़ दिया है। यह एक रीति है। 'इंडियन ओपिनियन' की मार्फत होनेवाले चन्देके अलावा भी हमें विशेष सुझावके साथ कुछ पैसा मिला है। इस प्रकार हमारे द्वारा पैसा भिजवाना दुसरी रीति है । जो लोग अपना पैसा किसी विशेष जगह स्वतंत्र

 
  1. स्टारने १९०७ के टान्सवाल प्रवासी प्रतिबन्धक विधेयकमें विहित शिक्षा परीक्षा (जिसमें प्रवेशार्थीकी मात्र इस क्षमताकी जाँच की जाती थी कि वह यीडिश सहित किसी यूरोपीय भाषामें प्रवेश करनेकी अनुमति माँगते हुए एक अर्जी लिखकर उसपर अपने हस्ताक्षर कर सकता है अथवा नहीं) की सराहना करते हुए मौजूदा विधेयकको न्याय या युक्तिकी भावनासे हीन बताया था और लिखा था कि इसके अन्तर्गत विहित शिक्षा-परीक्षा सरकारी अफसरोंको असीम अधिकार दे देती है। इसके अतिरिक्त उसमें इस बातपर भी आपत्ति प्रकट की गई थी कि विधेयक में यीडिश सहित यूरोपीय भाषाका भी उल्लेख नहीं था और न अधिकारियों के निर्णयके विरुद्ध अपीलकी व्यवस्था थी । देखिए इंडियन ओपिनियन, १०-२-१९१२ ।
  2. देखिए "देशमें अकाल ", पृष्ठ १७७ और १९३-९४ भी ।
  3. डॉ० मेहताको लिखे गांधीजीके पत्रोंमें अकालकी चर्चा बराबर रहा करती थी । देखिए पृष्ठ १५५, १६१ और १७८ ।