बैठेगा । इसलिए जहाँ यह आवश्यक है कि इस मामलेको अपीलके उच्चतम न्यायालय तक ले जाया जाये वहाँ यह भी उतना ही आवश्यक है कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय समझ रखें कि न्यायालयोंके लिए इस प्रकारके मामलोंमें कोई अन्तिम निर्णय देना किसी तरह सम्भव नहीं है। यदि अपीलके उच्चतम न्यायालय में भी यही फैसला बहाल रहा तो उन्हें इन दोनों कानूनों में संशोधन करवानेका प्रयत्न करना पड़ेगा ।
अपीलका सारा भार उठा लेनेकी आशा श्री भायातसे नहीं की जा सकती । सारे समाजका कर्त्तव्य है कि वह उनकी सहायता करे। इस मुकदमेका फैसला सब- पर लागू होता है; इसलिए आशा है कि अब जो कार्रवाई की जा रही है उसके खचमें हाथ बँटानेके लिए सम्पन्न ब्रिटिश भारतीय चन्दा देनेमें आगा-पीछा नहीं करेंगे।
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-७-१९१२
टॉल्स्टॉय फार्म
लॉली स्टेशन
ट्रान्सवाल
आषाढ शुक्ल १४, [ जुलाई २७, १९१२]
भाई श्री मनसुख,
आपका पत्र मीला है। मी० मणीलाल डॉक्टर के लिये में तार भेजा था। उसका जवाब आपने न भेजा इस परसे मैं समझा की आप लोग उसकु मुक्त करनेमें राजी न थे। दूसरे सबबोंके लिये भी मी० मणिलालजीने फीजी ही जानेका निश्चय किया । गत सूत्रके रोज ये भाई केपसे नीकल चुके हैं। आपको तार भी दिया है। अस्ट्रेलिया होकर वहाँ पहोंचेंगे।
१. गांधीजीने सदा वर्ग-विधानका विरोध किया था। चूँकि महारानी विक्टोरियाकी घोषणा अनुसार भारतीय भी ब्रिटिश साम्राज्यके सदस्य हो गये थे; इसलिए नेटाल तथा ट्रान्सवालके संविधानों में ऐसे सभी वर्ग-विधानोंपर साम्राज्य सरकारकी स्वीकृति लेनेकी व्यवस्था की गई थी जो सम्पूर्ण ब्रिटिश भारतीय समाजके विरुद्ध पड़ते हों । खण्ड ६, पृष्ठ ३-४ और २७८-७९
२. यह गांधीजी द्वारा हिन्दीमें लिखा गया पहला पत्र है । मूल हिन्दी पत्रोंमें हिज्जेकी दृष्टिसे भी कहीं कोई सुधार नहीं किया गया है, किन्तु जहाँ अर्थ स्पष्ट करनेके लिए पाद-टिप्पणियाँ देना आवश्यक लगा है, वहाँ वे दे दी गई हैं ।
३. पत्र में मणिलालके फीजी जानेकी बात कही गई है । वे २६ जुलाई, १९१२ को केप टाउनसे रवाना हुए थे । इससे जान पड़ता है कि यह पत्र १९१२ में ही लिखा गया था। उस वर्ष आषाढ़ शुक्ल १४ को जुलाईकी २७ तारीख पड़ी थी ।
४. मैंने