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३१५. आरोग्यके सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान [-१]


आरोग्यके सम्बन्धमें मुझे पिछले बीस वर्षोंसे विचार करते रहना पड़ा है। विलायत जानेके कारण और एक विशेष प्रकारकी जीवन-पद्धतिसे बँधा हुआ होनेके कारण अपने खाने-पीनेकी सारी व्यवस्था मुझे ही करनी पड़ती थी। कहा जा सकता है कि इन्हीं कारणोंसे इस सम्बन्ध में मुझे ठीक-ठीक अनुभव हुए हैं। इन अनुभवोंके आधारपर मैं अपने कुछ विचार निश्चित कर सका हूँ और वे विचार 'इंडियन ओपिनियन' के पाठकोंके लिए उपयोगी सिद्ध हों, यह सोचकर ये प्रकरण लिख रहा हूं।

अंग्रेजी में एक कहावत है कि "रोगको मिटानेकी अपेक्षा उसे होने ही न देना कहीं अधिक अच्छा है।" "पानीसे पहले पाल बाँधना", यह [गुजराती] कहावत भी इसी विचारको प्रकट करती है। रोगको होने न देनेकी दिशा में जो प्रयत्न किये जाते हैं, उन्हें अंग्रेजीमें "हाइजीन" कहते हैं। गुजराती में उसे "आरोग्य संरक्षण शास्त्र" कहा जा सकता है। यह शास्त्र वैद्यक शास्त्रसे भिन्न माना जाता है। कोई-कोई इसे वैद्यक शास्त्रका अंग मानते हैं। यहाँ इस भेदको स्पष्ट करनेका एकमात्र कारण इतना ही है कि इन प्रकरणों में प्रधान रूपसे आरोग्यका संरक्षण करनेके उपाय बतलाये जायेंगे। जैसे कोई खोया हुआ रत्न मुश्किलसे ही हाथ लगता है और जैसे उसकी देख-रेख में हम जितना प्रयत्न करते हैं, उससे कहीं अधिक प्रयत्न उसके [खो जानेपर] उसकी खोजबीनमें हमें करना पड़ता है, ठीक इसी प्रकार आरोग्य-रूपी रत्नके हमारे हाथसे चले जानेपर उसे पुनः प्राप्त करने में बहुत समय और परिश्रम करना पड़ता है। इन्हीं कारणोंसे आरोग्यके संरक्षणपर विचारशील मनुष्यको बहुत ध्यान देना चाहिए। हम प्रसंगानुकूल इसका विचार भी करेंगे कि स्वास्थ्य खो देनेपर उसे पुनः किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।

अंग्रेज कवि मिल्टनने कहा है कि मनुष्यके लिए उसका मन ही स्वर्गलोक और नरकलोक है। जहन्नुम कोई जमीनके नीचे नहीं है और न जन्नत आसमानमें। संस्कृत ग्रंथोंमें भी ऐसा विचार मिलता है : "मन ही बन्धन और मोक्षका कारण है।" इस सूत्र के अनुसार कहा जा सकता है कि मनुष्यके रोगी या निरोगी रहनेका कारण बहुत हद तक वह स्वयं ही है। जिस प्रकार हम अपने कर्मोंसे बीमार पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार विचारोंसे भी बीमार पड़ते हैं। अपने लड़केको हैजा हुआ देखकर बापको भी हो गया, कई बार ऐसे उदाहरण देखनेको मिलते हैं। एक प्रसिद्ध वैद्यने कहा कि महामारी आदि रोगोंसे जितने लोग मरते हैं, उससे कहीं अधिक उसके भयके कारण मरते हैं। "डरपोक बेमौत मरता है", यह कहावत विचारणीय है।

अज्ञान भी आरोग्यको नष्ट करनेका एक प्रधान कारण है। यदि सिरपर कोई आपत्ति आ जाये और हमें तत्सम्बन्धी उपायोंकी जानकारी न हो, तो हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और कुछ अच्छा करनेकी फिक्रमें बुरा कर बैठते हैं।