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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले सर्वसाधारण नियमोंकी जानकारी न होनेके कारण हम अनेक बार ऐसा कुछ कर डालते हैं जो करने योग्य नहीं होता; अथवा स्वार्थी और धूर्त नीम-हकीमोंके हाथोंमें जा पड़ते हैं। यह अत्यन्त आश्चर्यकी बात है, फिर भी है सत्य कि हमें अपने पासमें पड़ी हुई वस्तुका ज्ञान उन वस्तुओंके ज्ञानकी अपेक्षा बहुत कम होता है जो हमसे दूर होती है और जिनसे हमारा सम्पर्क नहीं होता। मैं अपनी गलीका भूगोल नहीं जानता, किन्तु इंग्लैंडके गाँव और नदियोंके नाम मुझे कण्ठस्थ हैं। आकाशके तारोंके विषय में मैं अवश्य ही बकवास करूँगा, परन्तु अपने घरके छप्परका ज्ञान मुझे नहीं होता। सम्भव है, मैं आकाशके तारोंको गिन डालनेका विचार करने लगूं, किन्तु मेरे घरकी छतमें क्या-क्या लगा है या उसमें कितनी बल्लियाँ हैं, यह जाननेकी मुझे कोई इच्छा नहीं होती। मेरी दृष्टिके सामने कुदरतका जो नाटक चल रहा है, मैं उसे नहीं देखना चाहता, किन्तु नाटकशालाओंमें जो स्वाँग रचे जा रहे हैं उन्हें देखनेका अवश्य मेरा मन होता है। ठीक इसी प्रकार मेरे शरीरमें क्या होता है, यह शरीर क्या है, यह किन चीजोंका बना हुआ है, इसकी ये हड्डियाँ, यह मांस, रक्त आदि किस प्रकार बनते हैं और इन सबका काम क्या है, मेरे शरीरमें यह बोलनेवाला कौन है, मेरी गतिका आधार क्या है, मनमें एक बार अच्छे और दूसरी बार खराब विचार क्यों आने लगते हैं, मेरी इच्छाके विरुद्ध भी मेरा यह मन करोड़ों मील क्यों दौड़ जाता है, मेरा शरीर तो बीरबहूटीकी गतिसे धीमे-धीमे चलता है तब मेरा यह मन वायुवेगसे भी हजारों गुना अधिक वेग कैसे धारण किये हुए है; इस सबका मुझे कोई भान नहीं है। इस प्रकार मेरे इस शरीरसे, जो मेरे लिए सबसे अधिक निकटकी वस्तु है, मेरे मनका सम्बन्ध कैसा है, उसकी मुझे लगभग कोई जानकारी ही नहीं है।

इस दारुण स्थितिसे छुटकारा पाना हरएकका फर्ज है। शरीर और मनके सम्बन्धको समझ पाना एक बहुत ही कठिन काम है। किन्तु शरीरके साधारण व्यापारके विषय में थोड़ा-बहुत जान लेना तो हरएक मनुष्यको अत्यन्त आवश्यक मानना चाहिए। बच्चोंके पाठ्यक्रम में भी यह जानकारी शामिल की जानी चाहिए। मेरी अँगुली कट जाये और उसका उपाय मैं न जानूं, मुझे काँटा गड़े और उसे मैं न निकाल सकूँ, मुझे सर्पदंश हो जाये तो बिना भयभीत हुए मुझे क्या करना चाहिए, इनकी जानकारी न हो! इन सब बातोंका विचार करें तो यह शर्मकी बात प्रतीत होती है। आरोग्यके विषयमें केवल कठिन शब्दोंका प्रयोग करके ऐसा कुछ कह देना जिसे साधारण मनुष्य बिलकुल न समझ सके, यह निरा "मिथ्याभिमान" होगा अथवा इसे "मनुष्यको धोखा देनेका महान् प्रपंच" ही कहा जायेगा।

'इंडियन ओपिनियन' के जो पाठक अभीतक ऐसी पराधीनता और अज्ञानसे मुक्त न हो पाये हों, वे कुछ हद तक इससे मुक्त हो सकें, यही इन प्रकरणोंके लिखनेका हेतु है।

इस प्रकारके लेख और कहीं लिखे ही न गये हों, सो बात भी नहीं है। किन्तु मनुष्योंको विशिष्ट पुस्तकें अथवा अखबार पढ़नेकी आदत पड़ जाया करती है। 'इंडियन