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आरोग्यके सम्बन्धमें सामान्य ज्ञान [-२]

यानी कचरा साफ करना और प्रतिरोधसे जूझना। मैं प्रकृतिकी मदद कर सकता हूँ; जैसे कि जिन कारणोंसे कचरा इकट्ठा हुआ है उन कारणोंको हटा दूँ ताकि और कचरा जमा न होने पाये। मतलब यह कि इस बीच खाना बन्द कर दूँ, इससे अधिक कचरा जमा होना बन्द हो जायेगा। साथ ही खुली हवामें कुछ आवश्यक कसरत करूँ। इससे भी मैं शरीरकी चमड़ी आदिके मार्गोंसे कचरेको निकाल सकूँगा। यह देहको नीरोग रखनेका स्वर्ण-नियम है और प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही इसे सिद्ध कर सकता है। आवश्यकता इस बातकी है कि हम अपने मनको स्थिर रखें। जो मनुष्य ईश्वरपर सच्ची आस्था रखता है, वह तो सदैव यही करेगा। मनकी ऐसी स्थिति बनाने में इस प्रकार सोचनेसे मदद मिलेगी कि "यदि मैं वैद्यों आदिकी दवा लूँ तो उससे रोग दूर हो ही जायेगा, ऐसा जिम्मा तो कोई नहीं लेगा। वैद्योंके हाथों में सभी लोग नीरोग नहीं हो जाते।" यदि ऐसा होता, तो मुझे यह प्रकरण लिखना ही नहीं पड़ता और हम सब सुखकी जिन्दगी भोगते।

अनुभव तो ऐसा है कि घरमें दवाकी शीशीका एक बार प्रवेश हो जाये तो फिर वह बाहर नहीं निकलती। असंख्य मनुष्य सारी जिन्दगी किसी-न-किसी रोगके शिकार बने रहते हैं और एकके बाद एक दवाएँ लेते चले जाते हैं; वैद्यों और हकीमोंको बदलते रहते हैं। रोगको दूर कर सके, ऐसे किसी वैद्यकी तलाशमें भटकते रहते हैं और अन्तमें स्वयं बर्बाद होकर तथा दूसरोंको बर्बाद करके छटपटा कर मर जाते हैं। प्रख्यात जज स्वर्गीय स्टीफेनने, जो हिन्दुस्तानमें भी रह चुके हैं, एक बार कहा, "एक तो चिकित्सकोंको वनस्पतियोंके विषय में बहुत कम जानकारी होती है; फिर, वे उन शरीरों में इन वनस्पतियोंको उड़ेलते जिनके विषय में इससे भी कम जानकारी रखते हैं।" स्वयं चिकित्सकगण भी ठीक अनुभव प्राप्त करनेके बाद यही बात कहते हैं।

डॉ० मेजेन्दीने कहा है : "दवा एक भारी पाखण्ड है।" सर ऐशले कूपर नामके एक प्रख्यात डॉक्टर हुए हैं। उन्होंने कहा है कि "वैद्यकशास्त्र निरी अटकलबाजीपर रचा हुआ शास्त्र है।" सर जॉन फोर्बीजने कहा है, "वैद्यों और डॉक्टरोंकी चतुराईके बावजूद तमाम लोगोंके रोग स्वयं प्रकृतिने ही दूर किये हैं।" डॉ० बेकका कहना है कि "लाल ज्वरसे जितने रोगी मरते हैं, उससे कहीं अधिक लोग उस ज्वरकी दवासे मरते हैं।" डॉ० फॉथ कहते हैं कि "वैद्यकसे बढ़कर दूसरा कोई अप्रामाणिक व्यवसाय शायद ही मिले।" डॉ० टॉमस वाटसन कहते हैं: "हमारा यह व्यवसाय एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्नके विषय में सन्देहके समुद्रपर भटक रहा है।" डॉ० कॉसवेल कहते हैं: "यदि डॉक्टरी या वैद्यकको नाबूद कर दिया जाये, तो मनुष्य जातिका अपार लाभ हो।" डॉ० फ्रैंक कहते हैं: "दवाखानों में हजारों मनुष्योंकी हत्या होती है।" डॉ० मैसन गुड कहते हैं: "लड़ाइयों, महामारियों और अकालसे जितने लोगोंकी बलि होती है, उससे कहीं अधिक दवाओंसे होती है।" कई बार देखा गया है कि जहाँ-जहाँ वैद्योंकी संख्या बढ़ती है, रोग भी बढ़ते हैं। जिन अखबारोंमें दूसरे विज्ञापन प्रकाशित नहीं होते, उनमें भी दवाओंके बड़े-बड़े विज्ञा-