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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पन प्रकाशित होते हैं। 'इंडियन ओपिनियन' में जब विज्ञापन लिये जाते थे, तब उसके कार्यकर्ता विज्ञापन प्राप्त करनेके लिए लोगोंके पास जाते थे। किन्तु दवाओंके विज्ञापन प्रकाशित करनेके आग्रहपूर्ण प्रस्ताव दवाओंके निर्माताओंकी ओरसे अपन-आप आते रहते थे और वे खूब पैसा देनेका लालच भी देते थे। जिसकी कीमत एक पाई है, ऐसी दवाका हम लोग एक रुपया देते हैं। परन्तु अधिकांशतः उत्पादक हमें यह बात नहीं जानने देता कि वह दवा किस चीजकी बनी हुई है। 'छिपी दवाइयाँ' नामकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है। इसे प्रकाशित करनेका हेतु यह है कि बहुत से लोग व्यर्थ न भटकें। उस पुस्तकमें बतलाया गया है कि सार्सापरिला, फ्रूट साल्ट, शरबत आदि जो प्रसिद्ध और पेटेंट दवाइयाँ हैं और जिनके दाम हम ३ से ७ शिलिंग तक देते हैं, उनकी लागत एक फ़ार्दिगसे लेकर एक पेनी तक की होती है। मतलब यह हुआ कि हम कमसे-कम ३६ गुना और अधिक-से- अधिक ३३६ गुना दाम देते हैं। यानी हम ३,५०० प्रतिशत से लेकर ३५,००० प्रतिशत तक मुनाफा देते हैं।

इससे पाठकको इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि रोगीको डॉक्टरके यहाँ भाग कर जानेकी जरूरत नहीं है। एकाएक दवा भी नहीं लेनी है। परन्तु सब लोग इतना धीरज नहीं रख पाते। फिर सभी डॉक्टर अप्रामाणिक भी नहीं होते। दवा हमेशा खराब ही होती है, यह भी आम लोग नहीं मानते। ऐसे सब लोगोंसे इतना तो कहा ही जा सकता है कि आप यथासम्भव धीरज रखें। डॉक्टरोंको जबतक बन पड़े, कष्ट न दें। यदि डॉक्टरको बुलाया ही जाये, तो किसी अच्छे डॉक्टरको बुलाना चाहिए और जब एकको बुला लिया, तो उसीको पकड़े रहना चाहिए। और जब वहीं किसी दूसरेको बुलानेके लिए कहे तभी दूसरेको बुलायें। आपका रोग उस डॉक्टरके हाथकी बात नहीं है। यदि आपकी जिन्दगी बाकी है, तो आप निश्चय ही अच्छे होंगे; और यदि प्रयत्नोंके बावजूद आपकी या आपके सम्बन्धीकी मौत हो जाये, तो समझना चाहिए कि मृत्यु भी जीवनका एक रूप ही है। हम इस प्रकार सोचें और तदनुसार चलें, यही इन प्रकरणोंके लिखनेका हेतु है। इनमें मैं शरीरकी रचना, हवा, पानी, खुराक, कसरत, पानी और मिट्टीके उपचार, दुर्घटनाओं, बच्चोंकी सार-सँभाल, गर्भावस्था के सम्बन्धमें स्त्रीके कर्त्तव्य और सर्वसाधारण रोगोंके सम्बन्धमें पाठकके साथ चर्चा करनेकी बात सोचता हूँ।

मोहनदास करमचन्द गांधी

फीनिक्स

[गुजरातीसे]

इंडियन ओपिनियन, ११-१-१९१३