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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


एक अंग्रेज लेखकने लिखा है कि उसी मनुष्यको नीरोगी कहा जा सकता है जिसके स्वस्थ शरीरमें पवित्र मनका निवास है। मनुष्य केवल शरीर ही शरीर नहीं है, शरीर तो उसका निवास-स्थान है और शरीर, मन तथा इन्द्रियोंका ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इनमें से एक व्याधिग्रस्त हो तो दूसरे खराब हो जाते हैं। शरीरको गुलाबके फूलकी उपमा दी जाती है। गुलाबके फूलका बाहरी दिखावा ही उसका शरीर है। सुगन्ध उसकी आत्मा - रूह - है। कागजका बना हुआ गुलाबका फूल कौन पसन्द करेगा? सूख जानेपर गुलाबमें उसकी सुवास नहीं मिलेगी। गुलाबकी पहचान तो उसकी सुवास ही है। ठीक इसी प्रकार मनुष्यकी सुवास उसकी आत्माका चारित्र्य ही उसकी पहचान है। गुलाबकी तरह दीखनेवाली अन्य कोई भी वस्तु, यदि उसकी गंध खराब है, हम फेंक देंगे। ठीक इसी प्रकार मनुष्यका शरीर ठीक दिखाई देता हो, किन्तु उसमें निवास करनेवाली रूह यदि अनाचार करनेवाली हो, तो हम उसके शरीरके प्रति मोह नहीं रख सकेंगे। अतः हम देख सकते हैं कि जिस मनुष्यका चरित्र खराब है, उसे नीरोगी नहीं कहा जा सकता। शरीरका आत्माके साथ ऐसा कुछ घनिष्ठ सम्बन्ध है कि जिसका शरीर नीरोगी होगा उसका मन भी नीरोगी ही होगा। इसी मान्यता के आधारपर पश्चिममें एक पन्थ निकल पड़ा है। वह मानता है कि जिसका मन शुद्ध हो, उसे रोग होगा ही नहीं। और जिसे रोग है, वह अपने मनको शुद्ध रखकर शरीरको नीरोगी बना सकता है। यह मत उपेक्षा करने योग्य नहीं है। वास्तवमें यह सही है; परन्तु पश्चिमके सुधरे हुए लोग इसका दुरुपयोग करते हैं। हमें तो इसमें से इतना ही सार लेना चाहिए कि आरोग्यताको बनाये रखने का सबसे बलवान साधन हमारा मन ही है और मनकी शुद्धता ही आरोग्यताका निर्वाह करनेवाली वस्तु है।

एक मनुष्य क्रोधी है, उसका मिजाज तामसी है; दूसरा आलसी है; तीसरा बहरा है। ये जो सारी खामियाँ हैं, सच देखा जाये तो ये बीमारीके ही चिह्न हैं। कई डॉक्टर ऐसा मानते हैं कि चोरी आदि बुराइयाँ भी रोग ही हैं। विलायत में कई धनाढ्य स्त्रियाँ दूकानोंसे छोटी-छोटी चीजोंकी चोरी कर लेती हैं। ऐसी मनःस्थितिको विलायतके डॉक्टर चौर्योन्माद (क्लेप्टोमेनिया) की बीमारी कहते हैं। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो खून-खराबी न करें, तो उन्हें चैन नहीं पड़ता। यह भी एक रोग ही है।

इन सब बातोंपर विचार करके हम कह सकते हैं कि वही मनुष्य तन्दुरुस्त है, जिसका शरीर व्यंग-रहित है, अंगोंमें कोई खामी नहीं है, जिसके दाँत ठीक हैं, जिसके कान, आँख, आदि भी ठीक हैं, जिसकी नाक नहीं बहती, जिसकी चमड़ीसे पसीना निकलता है और उसमें बदबू नहीं होती, जिसके पैरोंसे वास नहीं आती और न मुंहसे ही दुर्गन्ध आती है, जिसके हाथ-पैर रोजमर्राके काम कर सकते हैं, जो विषयासक्त नहीं रहता, जो न बहुत मोटा है और न बहुत पतला और जिसका मन तथा इन्द्रियाँ सदैव वशमें रहती हैं। इतना स्वस्थ होना या रहना सहज बात नहीं है। हमें ऐसा आरोग्य नहीं मिला, क्योंकि हमारे माँ-बाप भी ऐसे नीरोग नहीं थे। एक महान् लेखकने कहा है कि यदि माता-पिता सब प्रकारसे योग्य हों और उनके सन्तति हो,