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३२८. परवानेसे सम्बन्धित प्रश्न

इस मासकी २० तारीखको उतरेखमें नेटाल नगरपालिका संघकी जो सालाना बैठक हुई, उसमें संघके अध्यक्षके भाषण में एक महत्वपूर्ण उल्लेख आया। बताया गया कि संघकी संसदके पिछले अधिवेशनमें जिस वित्तीय-सम्बन्ध विधेयक (फाइनेंशियल रिलेशंस बिल) को छोड़ दिया गया था, वह इस अधिवेशन में, कुछ परिवर्तनोंके साथ, फिरसे पेश किया जायेगा। संक्षेपमें उसके ये उद्देश्य बताये गये : दूकानदारोंके परवानोंसे प्राप्त आमदनी प्रान्तीय परिषदोंको हस्तान्तरित करना और उनके सम्बन्ध में कानून बनानेका अधिकार भी उन्हींके सुपुर्द कर देना - "जिसका मतलब यह हुआ कि यदि विधेयक इसी रूपमें पास हो जाता है तो परवानोंका नियन्त्रण प्रान्तीय परिषदोंके हाथमें चला जायेगा।" यदि विधेयकका उद्देश्य नगरपालिकाओंके हाथसे व्यापारके परवानोंका नियन्त्रण ले लेना है तो निःसन्देह इसके लिए भारतीय समाजको बधाई दी जानी चाहिए। पर यदि इसका मतलब यह है कि परवानोंका नियन्त्रण संघीय सरकारसे प्रान्तीय परिषदोंको दे दिया जाये तो निःसन्देह इसका परिणाम समाजके हितोंके लिए अत्यन्त हानिकारक सिद्ध होगा। हम अनुभव करते हैं कि भारतीय जनताको इस विधेयकपर जितना विचार करना तथा इसकी जितनी आलोचना करनी थी, उतनी उसने नहीं की। और हमें ऐसा जान पड़ता है कि इसका दक्षिण आफ्रिका अधिनियम के खण्ड १४७ से विरोध है। उस धारामें कहा गया है कि "जिन मामलोंका विशेष रूपसे, या सामान्यतः सारे संघके एशियाइयोंपर प्रभाव पड़ता हो, उन सबका नियन्त्रण एवं प्रशासन सपरिषद् गवर्नर-जनरलके अधिकारमें होगा," अर्थात् प्रान्तीय परिषदोंके नहीं, बल्कि संघीय संसदके अधिकारमें होगा। जहाँतक नेटालका सम्बन्ध है, सभी जानते हैं कि भारत द्वारा गिरमिटिया मजदूरोंका भेजना बन्द करनेकी बातको लेकर बदलेकी भावनासे श्री जी० एच० ह्यलेटके प्रस्तावको[१] प्रान्तीय परिषदने १९११ में जो स्वीकृति दी उससे [भारतीय-विरोधी क्षेत्रोंमें] यह आशा बाँधी जा रही है कि संघके भारतीयोंका बोझ और भी बढ़ाया जा सकेगा। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि जब साम्राज्य सरकारने दक्षिण आफ्रिका अधिनियममें उसके खण्ड १४७ में दिये गये संरक्षणोंको शामिल करनेपर जोर दिया था तो उसके दिमाग में व्यापारिक परवानोंका सवाल भी था। किन्तु हम आगाह किये देते हैं कि यदि यह विधेयक हमारे द्वारा अनुमानित रूपमें पास हुआ तो वे सभी संरक्षण खत्म हो जायेंगे। और चूँकि साम्राज्य सरकारके मन्त्रियोंने हमें बतला दिया है कि सम्राट्के हाथमें जो निषेधाधिकार है वह अवास्तविक और भ्रममात्र है और राज्यादेशोंमें इसका उल्लेख केवल एक कूटनीतिक चाल है, इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि भारतीयोंके व्यापारिक अधिकारोंकी स्थिति अब पहलेसे भी अधिक

  1. देखिए पादटिप्पणी २, पृष्ठ ७१।