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३३१. "शुं देशनो उदय एम करी शकाये?"[१]

यह पंक्ति एक प्रसिद्ध गुजराती कविताकी है। यह हमें 'गुजराती पंच' का निम्न अनुच्छेद पढ़कर स्मरण हो आई:

श्रीमन्त सरदार बलवन्तराय भाई साहब सिंधियाने दुनियादारी छोड़कर वानप्रस्थ लेनेवाले वैष्णवोंको १२५ रुपये मासिक वृत्ति देनेके लिए दो लाख रुपये की रकम मंजूर की है।

यह ठीक है कि श्रीमन्त सरदारने यह रकम अत्यन्त उदार हृदयसे मंजूर की है। यह भी सच है कि कुछ योग्य वैष्णव वानप्रस्थ लेते हैं। वानप्रस्थ लेना - फकीरी अख्तियार करना - एक ऊँची स्थिति है। परन्तु वानप्रस्थीको मासिक वृत्तिका लालच देना तो उससे द्रोह करने जैसा है। वानप्रस्थीको वृत्ति देनेका क्या अर्थ? वानप्रस्थ और पैसा, दोनों परस्पर विरोधी हैं। हमारा अनुमान है कि उक्त रकम श्रीमन्त सरदारने वानप्रस्थियोंके कुटुम्बियोंको देनेके लिए मंजूर की होगी। ऐसी बात हो तो भी वह हमारे मतानुसार दोषयुक्त है। वानप्रस्थी अपने कुटुम्बके निर्वाहके लिए दुनियापर निर्भर नहीं रहता। वह तो अपने बाल-बच्चोंको ईश्वरके हाथमें सौंप देता है। यदि वह अपने स्त्री-बच्चोंके बारेमें मानवीय सहायता लेकर बीमा करे तो उसका वानप्रस्थ सच्चा वानप्रस्थ नहीं है। इसके अतिरिक्त मनुष्य वानप्रस्थ या फकीरी हिसाब लगाकर नहीं लेता। जब उसे उसका रंग चढ़ता है तब उसे दुनियामें कोई रोक नहीं सकता।

हमें तो लगता है कि श्रीमन्त सरदारकी सहायतासे ढोंग बढ़ने की सम्भावना अधिक है। बहुत-से नाम मात्रके "वैष्णव" वानप्रस्थ लेनेके लिए तैयार हो जायेंगे और उनके कुटुम्ब १२५ रु० की मासिक वृत्ति ले लेंगे। कहा जा सकता है कि उचित जाँच-पड़तालके पश्चात् मासिक वृत्ति दी जायेगी। इसका उत्तर है कि सच्चे वानप्रस्थीका कुटुम्ब जाँच-पड़ताल नहीं करायेगा। स्वयं वानप्रस्थी दाताको 'नोटिस' नहीं देगा। धर्मके नामपर ऐसा दान लेना लूटके समान है; और इस तरह वानप्रस्थी या देशभक्त उत्पन्न करनेसे देशका उत्थान नहीं होगा। किसी भी देशका उत्थान इस तरह हुआ हो, इसका एक भी उदाहरण इतिहास में दिखाई नहीं देता।

[गुजरातीसे]

इंडियन ओपिनियन, २५-१-१९१३

  1. अर्थात्, "क्या देशका उत्थान ऐसे किया जा सकता है?"