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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


है ही। इस सम्बन्धमें हमारा फर्ज यह है कि घरोंके अन्दर जहाँ-तहाँ कदापि नहीं थूकना चाहिए। हमें थूकदानी रखनी चाहिए और जब मार्ग चलते हुए थूकनेकी जरूरत महसूस हो, तो सूखी जमीनपर जहाँ खूब धूल दिखाई दे, वहाँ थूकना चाहिए। इससे थूक मिट्टी में मिलकर सूख जायेगा और कम नुकसानदेह होगा। अनेक डाक्टरोंका अभिप्राय तो यह है कि क्षयके रोगियोंको तो ऐसे बर्तनमें ही थूकना चाहिए जिनमें कीटाणुनाशक औषधि पड़ी हो। ऐसा बीमार सूखी जमीनपर या जहाँ अधिक धूल हो वहाँ भी यदि थूकता है, तब भी उसके थूकके कीटाणु नष्ट नहीं हो पाते। यह धूल उड़ती है, तो उसमें समाये हुए थूकके कीटाणुओंको भी उड़ा ले जाती है और दूसरे लोगोंपर रोगका संक्रमण होता है। यह बात ठीक हो या न हो, फिर भी इससे हम इतना तो समझ ही सकते हैं कि यत्र-तत्र थूकनेकी आदत गन्दी है और नुकसानदेह है।

कुछ लोगोंमें यह आदत होती है कि वे बचे हुए और पकाये हुए अनाजको या शाक-सब्जीके छिलकोंको इधर-उधर फेंकते रहते हैं। इन सबको भी जमीनमें ही थोड़ी-सी गहराईपर दबा दिया जाये, तो ये हवाको खराब नहीं कर सकेंगे और समय पाकर उनसे उपयोगी खाद तैयार होगी। ऐसी कोई भी वस्तु, जो सड़ने लगती है, खुलेमें फेंकी ही नहीं जानी चाहिए। इन सारी सलाहोंको समझ लेनेके बाद इन पर अमल करना बहुत ही सहज है। यह बात हरएक मनुष्य आजमा कर देख सकता है।

हमारी बुरी आदतोंसे हवा किस प्रकार दूषित होती है और उसे खराब होनेसे कैसे बचाया जा सकता है, यह हमने देखा। अब हवाका सेवन किस प्रकार किया जाये, इस विषय में हम विचार करेंगे।

[गुजरातीसे]

इंडियन ओपिनियन, ८-२-१९१३