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श्री गोखलेके भारतीय भाषण


कार्य और श्री गांधीने समझौते में जो हिस्सा लिया था, उसके बचाव में लग जाना पड़ा।[१] जैसी कि आशा की जाती थी, श्री गोखलेकी दलीलें कायल करने वाली रहीं। पूना में भी वे इस विषयपर बोले और वहाँ भी उनका स्वागत ज़बर्दस्त हुआ। किन्तु अपने आलोचकोंको मुंहतोड़ जवाब तो श्री गोखलेने बाँकीपुरमें दिया।[२] उन्होंने कांग्रेसके श्रोताओंको वहाँ एक घंटे से भी अधिक समय तक अपने भाषणसे मन्त्रमुग्ध रखा। इस वादविवादका परिणाम यह हुआ है कि जो पत्र श्री गोखलेकी दक्षिण आफ्रिकाकी सफलताकी या तो खुद आलोचना कर रहे थे या अपने नियमित संवाददाताओं को अनुत्तरदायित्वपूर्ण और गलत जानकारीपर आधारित आलोचनाएँ लिखनेका मौका दे रहे थे, वे सही रास्तेपर आ गये हैं। उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की है और मंजूर किया है कि श्री गोखले सही हैं और उन्होंने किसी भी सिद्धान्तकी हत्या नहीं की, और यह भी कि उन्होंने समस्याका ऐसी शान्त, राजनयिकोचित एवं देशभक्तिपूर्ण भावनासे समाधान किया है, जिसे केवल वही कर सकते थे। उन्होंने कुछ भी नया नहीं कहा, या किया। उन्होंने वहीं काम, जो स्थानीय भारतीय करते थे, अपने मौलिक ढंगपर किया और अपने महान् प्रभाव एवं प्रतिष्ठाका हमारे पक्ष में उपयोग किया। उन्होंने भारतके नामपर कुछ नहीं कहा या किया, क्योंकि वे उसके विधिवत् प्रतिनिधि नहीं थे; फिर भी वे गैर-सरकारी रूपसे सचमुच भारत और साम्राज्य, दोनोंके लिए बोले। अपने समालोचकोंके बावजूद श्री गोखले अपने देशवासियोंके आदरणीय हैं और साम्राज्यका जो सम्मान उन्हें प्राप्त है, वह आज किसी दूसरे भारतीयको प्राप्त नहीं है। हमें आशा है कि हम जल्दी ही कांग्रेसमें दिया हुआ उनका भाषण तथा पक्ष-विपक्षमें हुई आलोचनाओंका सारांश छाप सकेंगे। श्री गोखलेके दक्षिण आफ्रिकाके दौरे और भारतमें उनके लौटनेसे जो खलबली मची है उससे लाभ ही हुआ है। हम ऐसा इस कारण कहते हैं कि उनके अधिकांश आलोचकोंने समझौतेको स्वीकार कर लिया है और स्थितिको ठीक तरहसे समझ लिया है, इसलिए भारतमें आगे हमारे पक्षमें जो भी आन्दोलन होगा वह ज्यादा परिणामकारी होगा। और यह तो ईश्वर ही जानता है कि हमारी मातृभूमि हमें जो भी सहायता दे सके, उस सबकी हमें आज भी कितनी आवश्यकता है। अभी तो सेरमें एक पौनी भी नहीं कती है।

[अंग्रेजीसे]

इंडियन ओपिनियन, १५-२-१९१३

  1. श्री गोखलेके बम्बईके भाषणके लिए देखिए परिशिष्ठ २३।
  2. देखिए पादटिप्पणी १, पृष्ठ ४१८।