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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कई भागोंमें लोग दूसरे मनुष्योंको मारकर उनका मांस खा जाते हैं। उनके लिए यही खाद्य है। कुछ लोग सिर्फ दूध पीकर निर्वाह करते हैं। उनकी खुराक दूध ही हुई। दूसरे कुछ ऐसे हैं जो निरे फलाहारी हैं और फल ही उनके लिए खाद्य है। अत: इस प्रकरण में हमने खाद्य शब्दके अन्तर्गत इन सारी वस्तुओंका समावेश मान लिया है।

निश्चयपूर्वक यह कहना कठिन है कि खुराकमें क्या-क्या लिया जाये; तो भी इस सम्बन्धमें कुछ निर्णय कर लेना हरएक आदमीका फर्ज है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि भोजनके बिना हमारे शरीरका व्यापार चल ही नहीं सकता। इसे प्राप्त करनेके लिए हम सैकड़ों दुःख सहन करते हैं। ऐसी स्थिति में हमें यह देखनेकी आवश्यकता है कि हम खाते किसलिए हैं। यह जान लेनेपर ही हम इस बातपर ठीक विचार कर सकेंगे कि हमें कौन-सी खुराक लेनी चाहिए। इसे तो सभी कबूल करेंगे कि लाखमें निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे लोग स्वादके लिए खाते हैं। ये लोग इस बातकी भी परवाह नहीं करते कि ऐसा करनेसे वे बीमार होंगे या अच्छे रहेंगे। कुछ लोग तो खूब भोजन कर सकें, इसलिए सदैव जुलाब लेते रहते हैं या भोजन पचानेके लिए चूरन फाँका करते हैं। कुछ लोग खूब स्वादसे डटकर भोजन कर लेनेके बाद उसे के करके निकाल देते हैं और पुनः स्वादिष्ट भोजनके लिए तैयार हो जाते हैं। कुछ लोग खूब खाकर एक या दो समयके लिए खाना छोड़ देते हैं। कुछ लोग खाते-खाते इतनी लापरवाही कर जाते हैं कि मर ही जाते हैं। लेखकने ये सारे उदाहरण स्वयं देखे हैं। लेखककी खुदकी जिन्दगी में भी इतने अधिक परिवर्तन हुए हैं कि उसे स्वयं अपने अनेक कृत्योंपर हँसी और कुछ पर शर्म आती है। एक समय था जब लेखक प्रातःकाल चाय पीकर फिर दो-तीन घंटे बाद नाश्ता करता, फिर एक बजे भोजन करता, पुनः ३ बजे चाय लेता और ६ से ७ के बीच शामका भोजन करता। उन दिनों लेखककी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। उसे शोथ हो जाता था। दवाकी शीशी तो पास ही पड़ी रहती थी। ठीक ढंगसे खाया जा सके, इसलिए अनेक बार कोई रेचक दवा और इसके उपरांत पुष्टईके लिए कोई दूसरी शीशी। यह क्रम चला ही करता था। उस समय लेखकमें काम करनेकी जितनी ताकत थी, उससे आज तिगुनी है, ऐसा वह मानता है, यद्यपि अब उसकी प्रौढ़ावस्था मानी जाती है। यह जिन्दगी सचमुच ही दयनीय है और जरा गहरा सोचा जाये तो ऐसी जिन्दगी अधम, पापपूर्ण और लांछनास्पद मानी जानी चाहिए।

मनुष्य खानेके लिए ही नहीं पैदा हुआ और न खानेके लिए ही जीता है। वह तो अपने कर्ताकी पहचान करनेके लिए जन्मा है और उसी कार्यके लिए जीता है। प्रभुकी यह पहचान शरीरके निर्वाहके बिना नहीं हो सकती और खुराकके बिना शरीरका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीलिए खुराक लेना अनिवार्य है। यही ऊँचेसे- ऊँचा विचार है। जो स्त्री-पुरुष आस्तिक हैं, उनके लिए इतना ही बस है। वैसे नास्तिक मनुष्य भी यह तो कबूल करेगा कि आरोग्यकी रक्षा करते हुए ही भोजन करना चाहिए और शरीरको तन्दुरुस्त बनाये रखनेके लिए ही खाना चाहिए।

पशु-पक्षियोंकी बात लीजिए। वे स्वादके लिए नहीं खाते। वे पेटूकी तरह भी नहीं खाते। जब उन्हें भूख लगती है, तो वे भूख-भर खाते हैं। वे अपनी खुराकको