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आरोग्यके सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान [-९]


हमारी तरह पकाते भी नहीं हैं। जो कुछ कुदरतने तैयार कर दिया है, उसीमें से वे अपना भाग ले लेते हैं। तो फिर क्या मनुष्य स्वाद ले-लेकर खानेके लिए पैदा हुआ है? और क्या मनुष्यके ही नसीब में सदाके लिए बीमारियाँ हैं। जो ढोर मनुष्योंके साथ नहीं रहते, उनमें भुखमरी नहीं होती। उनमें एक गरीब और दूसरा मालदार, एक दिनमें दस बार भोजन करनेवाला और दूसरा मुश्किलसे एक बार खा सकनेवाला, ऐसा भेद भी देखने में नहीं आता। ये सारे भेद तो हमारे समाजमें ही बने हैं। ऐसा होते हुए भी पशुओंकी अपेक्षा हम खुदको बुद्धिमान मानते हैं। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि यदि हम अपने पेटको ही परमेश्वर मान लेते हैं और उसकी पूजा में ही अपना जीवन बिताते हैं, तो हम पशु-पक्षियोंकी अपेक्षा हलके दर्जेके ही हैं।

गहरा विचार करनेपर हम यह देख सकेंगे कि असत्य, लम्पटता, मिथ्या-भाषण, चोरी आदि दोष जो हमारे हाथों होते हैं, उनका प्रधान कारण हमारी स्वादेन्द्रियकी स्वच्छन्दता ही है। यदि हम अपने स्वादको वशमें कर लें, तो दूसरे विषयोंको नष्ट कर पाना बहुत ही सहज है। तो भी अधिक भोजन करने, लालसापूर्वक खानेको हम पाप नहीं मानते। यदि हम चोरी करें, व्यभिचार करें, या झूठ बोलें, तो अन्य लोग हमारी ओर तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते हैं। नीतिके विषयको लेकर झूठ, चोरी और व्यभिचारपर अनेक सुन्दर पुस्तकें लिखी गई हैं। लेकिन जिनकी स्वादेन्द्रिय उनके वशमें नहीं है उनके सम्बन्ध में कोई किताब नहीं है। इसे नीति अनीतिका विषय ही नहीं माना गया। इसका प्रधान कारण तो यह है कि हम सभी एक ही नाव में बैठे हुए हैं। "कठौता कूंडेपर क्या हँसेगा!" हमारे महापुरुष भी स्वादको पूर्ण रूपसे जीत सके हों, यह देखने में नहीं आया। अतः स्वाद ले ले कर खानमें किसी प्रकारका दोष नहीं माना गया। बहुत हुआ, तो इतना भर लिख दिया गया कि हमें अपनी इन्द्रियोंको वश में रखने के लिए भरसक मिताहारी बनना चाहिए। किन्तु यह नहीं लिखा गया कि चूंकि हम स्वादके वशीभूत हैं, इसीलिए हममें दूसरे प्रकारकी खराबियाँ देखने में आती हैं। अच्छे लोग चोरों, फरेबियों या विषयी मनुष्योंको अपने पास नहीं फटकने देते, किन्तु ये अच्छे लोग साधारण लोगोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारके विविध स्वादोंके अधिक वशमें देखे जाते हैं। गृहस्थका बड़प्पन उसके भोजनसे परखा जाता है। इसलिए जैसे चोरोंके गाँवमें चोरीको कोई गुनाह नहीं माना जाता, उसी प्रकार चूँकि हम सभी स्वादेन्द्रियके गुलाम बने हुए हैं, अतः इस गुलामीको कोई गिनता ही नहीं है; इस ओर नजर ही नहीं डालता। इतना ही नहीं, उसमें लोग बहुत आनन्द मानते हैं। अतः विवाहका प्रसंग हो तो, स्वादके मारे, हम दावतें करते हैं। यहाँ तक कि किसीकी मृत्युपर भी दावतें उड़ती है। त्यौहार आया कि मिष्टान्न आदि बना ही समझिये। मेहमान आये कि तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन बने। अड़ोसी पड़ोसियोंको, सगे-सम्बन्धियोंको यदि समय-समयपर दावतें नहीं दी गईं और उनके यहाँ हम भोजन नहीं कर पाये, तो यह एक बड़ा अविवेक ही माना जाता है। निमन्त्रितोंको यदि खूब डटकर भोजन न करवाया जाये, तो हम एकदम कंजूस माने जायेंगे। छुट्टियाँ हुई कि कुछ-न-कुछ स्वादिष्ट भोजन बनना ही चाहिए। रविवार आया कि हम यह मान लेते हैं कि हमें इतना खानेकी छूट है कि पेटमें हवाको भी स्थान न बचे।