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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस प्रकार यह जो एक बड़ा दोष है, उसे हमने एक बड़े गुणकी तरह प्रतिष्ठित कर दिया है। खाने-परोसने आदिके विस्तृत आचार निर्दिष्ट हैं, और इस सम्बन्धमें हमें अपनी गुलामी, अपनी हैवानियत नजर नहीं आती। इस अन्धकारसे किस प्रकार उद्धार हो? वैसे यह प्रश्न आरोग्य विषयकी मर्यादाके बाहर पड़ता है, अतः हम इसे पूछकर ही सन्तोष किये लेते हैं; किन्तु आरोग्यकी हद तक इसपर जितना विचार करना आवश्यक है, उतना तो करना ही चाहिए।

इसपर आरोग्यकी दृष्टिसे विचार करें। दुनियाका यह नियम देखने में आता है कि प्रकृति दुनियाके सारे प्राणियोंके लिए - मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतंगे, सबके लिए रोजकी खुराक रोज ही तैयार करती है। कुदरत ऐसा करती है, इसमें कोई नवीनता नहीं है। कुदरतके दरबारमें बीमा करानेकी प्रणाली नहीं। वहाँ कोई भूल नहीं कर सकता। वहाँ कोई सोया नहीं रहता, न कोई आलस्य ही करता है। प्रकृतिका यह रहट प्रतिपल चलता रहता है। यही कारण है कि वर्ष भरके भण्डार या एक दिनके भण्डारका भी कुदरतको संग्रह नहीं करना पड़ता। उसका यह कानून निरपवाद है और हम मजबूरीसे या अपनी मर्जीसे उसके वशीभूत हैं। यदि हम उस कानूनको समझें और तदनुसार चलें, तो एक दिनके लिए भी किसी घरमें भुखमरीका प्रसंग न हो। अब यदि प्रतिदिनका अनाज और हरएककी जरूरत-भरका ही, अधिक नहीं, पैदा होता हो, तो यह स्पष्ट है कि यदि कोई अधिक खा जाये - जितना नहीं खाना था उतना खा जाये, तो उतना कम हो जायेगा और परिणामस्वरूप दूसरेके हिस्से में उतना ही कम पड़ जायेगा। इस प्रकार सहज ही भुखमरीका कारण स्पष्ट हो जाता है। इस संसारमें हजारों बादशाहों और लाखों रईसोंके रसोईघरोंमें उन्हें और उनके नौकरोंको जितना चाहिए, उससे कहीं अधिक भोजन पकाया जाता है। यह सारा वे दूसरोंके मुँहसे ही छीनते हैं। तब फिर दूसरे भूखों क्यों न मरें? दो कुओंमें जलका अन्तः प्रवाह यदि एक हो और उनमें समान रूपसे जल आता हो, और फिर यदि एक कुऍमें किसी उपायसे अधिक जल लिया जाने लगे, तो यह स्पष्ट ही है कि दूसरे कुएँ में अपने-आप जलकी कमी हो जायेगी। अतः यदि ऊपरका नियम सही हो - और यह नियम कुछ लेखकके घरका नहीं है, अत्यन्त बुद्धिशाली पुरुषों का बताया हुआ है - तो हम अपनी खरी जरूरत से अधिक जो भोजन कर जाते हैं, वह चोरीका धन है। अखा सुनारने[१] सच ही गाया है : "काचो पारो खावो अन्न, तेवु छे चोरीनुं धन।"[२] जो कुछ हम निरे स्वाद के लिए खाते हैं, वह सब हमारे शरीरमें दृश्य या अदृश्य रूपसे फूट निकलता है और उस हद तक हम अपनी तन्दुरुस्ती खो बैठते हैं और दुःखी होते हैं। अब इतना देख लेनेके बाद हमें कौन-सी खुराक लेनी चाहिए और कितनी लेनी चाहिए, इसपर सरलतापूर्वक विचार किया जा सकेगा।

[गुजरातीसे]

इंडियन ओपिनियन, १-३-१९१३

  1. १७वीं शताब्दीके गुजराती कवि।
  2. चोरीका धन ऐसा है, जैसा अन्नकी तरह खाया गया कच्चा पारा।