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प्रार्थनापत्र: उपनिवेश-मन्त्रीको


लड़ाईके शूरू होने तक जोहानिसबर्ग में एक ऐसी बस्ती थी, जिसमें लोगोंको ९० बाड़ोंपर ९९-९९ सालके पट्टे प्राप्त थे। किन्तु एक विशेष अध्यादेश पास करके, अन्य क्षेत्रों साथ-साथ इस बस्तीके बाड़ा मालिकोंको बेदखल कर दिया गया। और तबसे एशियाई अपने नामोंपर उपर्युक्त ढंगके अलावा और किसी तरह जमीन-जायदाद नहीं रख पाये हैं।

फिर भी, इस खयालसे कि व्यावहारिक दृष्टिसे ब्रिटिश भारतीयोंको भूसम्पत्तिका स्वामित्व प्राप्त हो सके, वकीलोंकी सलाह लेकर कुछ न्यास स्थापित किये गये। ये न्यास कानून-सम्मत तो नहीं, लेकिन न्यायोचित अवश्य थे। अबतक इन्हीं न्यासोंके माध्यमसे एशियाइयोंको जमीनपर [किसी हद तक] स्थायी अधिकार प्राप्त रहा है। इस व्यवस्थाके अन्तर्गत एशियाइयोंके यूरोपीय मित्र भूमि का स्वामित्व अपने नाम करवा लेते है और उसकी कीमत उससे लाभ उठानेवाले एशियाई चुकाते हैं। फिर उस जमीनका जाहिरा मालिक एक बाँडके द्वारा उसे उसके न्यायोचित स्वामीके सुपुर्द कर देता है। न्यायालयोंने इन न्यासोंको मान्यता दे दी है, और यह प्रणाली लगभग उसी समयसे प्रचलित है, जबसे इस कानूनकी घोषणा की गई थी।[१]

स्वर्ण अधिनियम और कस्बा-कानून (१९०८)

जैसा कि स्पष्ट है, इन न्यासोंको विफल तथा अनिवार्य पृथक्करणको प्रभावकारी बनानेके उद्देश्यसे विधानमण्डल द्वारा स्वर्ण अधिनियम तथा १९०८ के कस्बा [कानून] संशोधन अधिनियममें ऐसी गूढ़ धाराएं[२] शामिल की गई है जो ऊपरसे तो अपेक्षाकृत निर्दोष लगती हैं (हालाँकि इस रूपमें भी वे बहुत क्षोभजनक है), किन्तु इनका मंशा वही है जो हम ऊपर कह आये हैं। संघको यह रहस्य, प्रसंगवश, अभी हालमें ही मालूम हुआ है। सरकारने क्लार्क्सडॉर्प नगरके उन यूरोपीय बाड़ा-मालिकोंके नाम एक नोटिस जारी किया है, जिनके बाड़ोंपर या तो ब्रिटिश भारतीयोंकी रहाइश है या जिनमें से कुछपर उन्होंने न्यायोचित तरीके से स्वामित्व प्राप्त कर रखा है। नोटिसमें उक्त

  1. अबूबकर आमदकी प्रिटोरिया नगरकी चर्च स्ट्रीट-स्थित जायदादको लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया था । सन् १८८५ के बोअर कानूनके अनुसार एशियाई लोगोंको धार्मिक उद्देश्योंके अलावा और किसी भी उद्देश्यसे वस्तियोंके बाहर भूस्वामित्वका अधिकार प्राप्त नहीं था । सन् १८८६ में इस कानूनको संशोधित करके अबूबकर आमदको इससे बरी कर दिया गया (देखिए. खण्ड ८, पृष्ठ १००-१०१) । सन् १९०६ में सर्वोच्च न्यायालयने बहुत आगा-पीछा करनेके बाद उस जमीनपर श्री आमदका अधिकार तो स्वीकार कर लिया, किन्तु साथ ही यह व्यवस्था भी दे दी कि वे उक्त जायदादका उत्तराधिकार किसीको नहीं दे सकते; ( देखिए खण्ड ६, पृष्ठ १२५-२६)। किन्तु सन् १९०६ के एशियाई अधिनियम संशोधन अध्यादेशके अनुसार उन्हें यह अधिकार भी मिल गया; देखिए खण्ड ६, पृष्ठ १०४; और गांधीजीके सुझावपर सन् १८८५के कानूनके कुछ हिस्सोंको रद करनेके लिए जिस कानूनका मसविदा तैयार किया गया, उसमें भी उनका यह अधिकार सुरक्षित रहा; (देखिए खण्ड ८, पृष्ठ १००-१०१)। ट्रान्सवालमें किसी भारतीय द्वारा भूस्वामित्व प्राप्त करनेका यह एकमात्र उदाहरण है
  2. यहाँ गांधीजीके मनमें निश्चय ही इस अधिनियमके खण्ड १०४, ११३, ११४, १२२, १२७ और १२८ रहे होंगे; देखिए खण्ड ८, पृष्ठ १९३-९४, २८४-८६ और परिशिष्ट २ ।