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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


बाड़ा मालिकोंपर स्वर्ण अधिनियमके खण्ड १३० का[१] उल्लंघन करनेका आरोप लगाते हुए कहा गया है कि अगर उन्होंने (पिछले) ३० अप्रैल तक ब्रिटिश भारतीयोंको अपने-अपने बाड़ोंसे नहीं हटाया तो उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जायेगी।[२] इस आदेशको अवहेलना करनेपर ५० पौंड जुर्माना होगा, और आगे जबतक कानूनका उल्लंघन जारी रहेगा तबतक प्रति दिन ५ पौंडके हिसाबसे जुर्माना देना पड़ेगा। इन नोटिसोंसे ब्रिटिश भारतीयोंके बीच खलबली मच गई है। कानूनी सलाह लेनेपर समाजको ज्ञात हुआ है कि उपर्युक्त दोनों कानूनोंको मिलाकर पढ़नेसे मतलब यह निकलता प्रान्तके खनिज क्षेत्रोंमें रहनेवाले सभी भारतीयोंके अपने-अपने बाड़ोंसे बेदखल हो जानेका और उन बाड़ोंपर उनके न्यायोचित अधिकारके पूर्णरूपसे छिन जानेका खतरा है। उपर्युक्त कस्वा-कानूनके एक खण्डसे उनका यह दूसरा मतलब हल हो जाता है। इस खण्डमें, बिना कोई मुआवजा दिये, ब्रिटिश भारतीयों तथा अन्य एशियाइयोंकी जमीन छीनकर राज्यके हवाले कर देनेकी व्यवस्था है-- भले ही ये ब्रिटिश भारतीय तथा एशियाई ऊपर बताये गये अनुसार इन बाड़ोंके व्यावहारिक मालिक ही क्यों न हों। इन सख्त कानूनोंके अन्तर्गत एशियाइयोंके जिस एकमात्र मौजूदा अधिकारको सुरक्षित रखा गया है उसका सम्बन्ध उन पट्टोंसे है जो प्रत्यक्ष रूपसे एशियाइयोंके नाम है और जो स्वर्ण अधिनियमकी घोषणासे पहले ही लिखे जा चुके थे। इन कानूनोंका असर अनेक प्रमुख नगरोंपर पड़ता है, जिनमें एक जोहानिसबर्ग (जहाँ ट्रान्सवालकी सम्पूर्ण भारतीय आबादीका लगभग आधा हिस्सा रह रहा है) भी है। अतः यदि इन कानूनों पर सख्तीसे अमल किया गया तो यह प्रायः निश्चित है कि ट्रान्सवालकी भारतीय आबादी बरबाद ही हो जायेगी और वर्तमान मन्त्रिमण्डलके कुछ प्रमुख सदस्योंकी, ब्रिटिश भारतीयोंको भूखों मारकर कलम हिलाते ही इस प्रान्तसे बाहर निकाल देनेकी, बहु-घोषित नीति कार्यान्वित हो जायेगी।

यदि कानूनको उन धाराओं में, जो जाहिरा तौरपर किन्ही भिन्न बातोंसे सम्बद्ध जान पड़ती है, दबे-छुपे ढंगसे अन्य चीजें डालनेके बजाय प्रकट रूपसे सन् १८८५ के कानून ३ में साफ-साफ संशोधन करनेकी कोशिश की जाती तो हमारे संघको विश्वास है कि उस कार्रवाईको सम्राट्की स्वीकृति कभी नहीं मिल पाती। संघ स्वभावत: आवेदनपत्रके इस अंशपर ज्यादासे-ज्यादा जोर देता है और आशा करता है कि सम्राट्की सरकार अवश्य ही राहत देनेकी कृपा करेगी।

'पैदल-पटरी उपनियम, आदि

ऊपरके विवरणसे स्पष्ट होगा कि यह संघ जिस समाजका प्रतिनिधित्व करता है उसके वास्तविक हितोंकी अवगणना की जाती । इस हालतमें संघ नहीं चाहता कि वह महामहिमकी सरकारके सामने उन उपनियमों और विनियमोंकी बात उठाये, जो इस

  1. खण्ड १३० में यह व्यवस्था की गई थी कि कोई भी यूरोपीय बाड़ा-मालिक " घोषित क्षेत्रमें" आनेवाले अपने बाड़े पर किसी रंगदार व्यक्तिको किसी तरहका शिकमी-पट्टा नहीं दे सकता और न कोई रंगदार व्यक्ति इस तरहका कोई पट्टा ले ही सकता है।
  2. देखिए पृष्ठ ४ की पाद-टिप्पणी २ ।