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पत्र: रावजीभाई पटेलको

अखाभगतने ऐसा उपदेश दिया है। तुलसीदास भी कहते हैं कि संकट हो या न हो पर राम-नाम का जप निरन्तर जारी रखो। ऐसा करनसे ही हमारा स्वार्थ सिद्ध होगा। और हमें जो स्वार्थ सिद्ध करना है वह यही [ ईश्वरकी प्राप्ति ] है। अत: जप निरन्तर चलता रहे। और राम कौन है, यह तो हमें स्वयं सोचकर निर्णय कर लेना है। राम तो निरंजन है, निराकार है। राक्षसी वृत्तियोंका समूहरूपी जो रावण है, दैवी वृत्तियोंके अनेक शस्त्रों द्वारा उसका संहार करनेवाली शक्ति ही राम है। इस शक्तिकी प्राप्तिके लिए स्वयं रामको भी १२ वर्षकी तपश्चर्या करनी पड़ी। अस्तु'; आप मन और तन दोनोंको एक क्षणके लिए भी निष्क्रिय न रहने दें। दोनों ही को उत्साहपूर्वक कार्यमें लगाये रहें, इसीसे सारे उपद्रव शान्त हो जायेंगे। बाकी प्रभुपर तो दृढ़ विश्वास बनाये ही रखना चाहिए। मुझपर भरोसा करने में तो कोई साहस नहीं है। यह तो तभी काम आ सकता है जब आप ऊपर जो-कुछ कहा गया है, उसे जीवन में उतारें।

हृदय पवित्र होना चाहिए। विकारेन्द्रियोंसे विकारको बचानेका उपाय यही है। पर हदय है क्या चीज? इसे पवित्र कब माना जाये? हृदय स्वयं आत्मा है: या आत्मा का स्थान है। इसका पवित्र हो जाना ही आत्मज्ञानकी प्राप्ति है। इसके पवित्र हो जानेपर इन्द्रियोंके विकार आदि ठहर ही नहीं सकते। लेकिन साधारण रूपमें हम ऐसा मानते हैं कि हृदयको पवित्र करनेका प्रयत्न करना ही हृदयका पवित्र हो जाना है। मुझे आपसे स्नेह है, इसका मतलब इतना ही हो सकता है कि मैं इस स्नेहको बनाये रखने में प्रयत्नशील हूँ। प्रेमको वृत्ति यदि अखण्ड हो जाये तब तो मैं ज्ञानी ही हो गया। पर मैं ज्ञानी तो नहीं हो पाया हूँ। जिस-किसी व्यक्तिके प्रति मेरा सच्चा प्रेम होगा, वह मेरे कथन अथवा हेतुके अर्थका अनर्थ कदापि नहीं करेगा। और वह मेरी उपेक्षा तो कर ही नहीं सकेगा। तो इससे यह सिद्ध हुआ कि यदि कोई मनुष्य हमें अपना शत्रु मानता है तो इसमें सर्वप्रथम दोष तो हमारा ही है। यह बात गोरोंके साथ हमारे जो सम्बन्ध है, उनपर भी लागू होती है। इसलिए पूर्ण रूपसे हृदयकी पवित्रता तो अन्तिम स्थिति -चरम स्थिति है। इस बीच ज्यों-ज्यों हमारी अन्तरकी पवित्रतामें वृद्धि होगी, विकारोंका शमन होता जायेगा। इन्द्रियों में तो विकार है ही नहीं।

"मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो : ।

इन्द्रियाँ तो मनोविकारकी अभिव्यक्तिके स्थान हैं, उन्हींके जरिये हम मनोविकारोंको पहिचान पाते हैं।

१.१७ वीं शताब्दीके रहस्यवादी गुजराती कवि; इनकी कविता अपने व्यंग्यके लिए प्रसिद्ध है । उद्धत पंक्तियों मूलमें इस प्रकार हैं :

सुतर आवे तेम तुं रहे;
जेमतेम करीने हरिने लहे ।

कहनेका अभिप्राय कदाचित् यह है कि जोवन-यापनके साधन जुटाने के लिए बहुत झंझट न करो; अधिकसेअधिक सरल जीवन-पद्धति अपनाओ; किन्तु प्रभुकी प्राप्तिकी दिशामें निरन्तर जागृत रहकर साधना करो।

२. मन ही मनुष्यके बन्धन अथवा मोक्षका कारण है।

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