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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मतलब यह हुआ कि इन्द्रियोंका नाश करनेसे मनोविकार नष्ट नहीं हो जाते । हिजड़ोंको देखिए, उनमें मनोविकारोंकी कमी नहीं होती। जो जन्मसे ही नपुंसक है, वे भी वासनाग्रस्त रहकर अनेक कुकर्म करते हुए देखे जाते हैं। मेरी ब्राणशक्ति मन्द है, परन्तु सुवासके लिए तो मन होता ही है। जब कोई गुलाब आदि किसी फूलकी बात करता है तो गवकी तरह यह मन उसी ओर खिंच जाता है और तब बड़ी जोरजबरदस्तीके बाद काबूमें आ पाता है।

ऐसे मनुष्योंके उदाहरण सुनने में आये हैं जिनका अपने मनपर काबू नहीं पर जिनकी विचारशक्ति बडी तीव्र थी। निदान उन्होंने इन्द्रिय-छेदन कर दिया। सर परिस्थितिमें वही करणीय हो। मेरा मन चंचल हो उठे और अपनी बहनपर ही मैं कुदृष्टि डाल दूं किन्तु इतना कामदाध होकर भी एकदम विमूढ़ न हो गया होऊँ तो ऐसे प्रसंगमें बचनेका कोई दूसरा उपाय न होनेपर मुझे लगता है, इन्द्रिय-छेदन कर डालना ही सम्भवत: पवित्र कार्य हो। लेकिन धीरे-धीरे प्रगति करनेवाले मनुष्यका यह हाल नहीं होता। यह तो उसीके लिए सम्भव है जिसके मनमें एकाएक तीव्र वैराग्य पैदा हो उठा हो और जिसका पिछला जीवन अच्छा न रहा हो। विकार उत्पन्न ही न हों और न इन्द्रियाँ चंचल बने, इसके लिए किसी तत्काल-परिणामी उपायकी खोज ऐसी ही है जैसे बंध्याके द्वारा पुत्रकी चाह करना। यह कार्य तो बहुत समय तक धैर्यपूर्वक साधना करने से ही सघ सकता है। तत्काल होनेवाली मनःशुद्धि तो वैसी ही है जैसे जादुका आम-जो केवल देखने-भरके लिए होता है,। हाँ, इतना अवश्य हो सकता है कि मन पवित्र बन जानकी स्थितिमें हो और व्यक्ति संत-समागम-रूपी पारसमणिकी तलाशमें रहे तो उसका स्पर्श पाते ही उसे अपने पवित्र स्वरूपका दर्शन हो जाये और अपवित्रता तब बीते-स्वप्नकी स्मृति-जैसी लगने लगे। पर इसे तत्काल या चटपट हो जाना नहीं कहा जा सकता। परन्तु जिसे साधारण उपाय कहा जाये और जो सहज यानी तात्कालिक भी माना जा सकता है, वह यह है:

एकान्त सेवन, सत्संगकी खोज, सत्कीर्तन, सद्वाचन, शरीरको लगातार परिश्रम-रत रखना, अल्पाहार, फलाहार, अल्प निद्रा, और भोग विलासका त्याग -जो व्यक्ति यह सब कर सकता है, उसे मनोराज्य हस्तामलकवत सहज ही प्राप्त है। इतना करते रहना चाहिए और दूसरे उपायोंकी तलाशमें रहना चाहिए। जब-जब मनोविकार सिर उठाये तब-तब उपवास आदि व्रतोंका पालन करना चाहिए। ...' का काम तो रावणकी प्रवृत्तिका-सा था। उसने तपश्चर्या करके राक्षसी-वृत्ति उपलब्ध की। रामचन्द्रने तपश्चर्या करके देवी-वृत्तिका सम्पादन किया। इस प्रकार क्रिया एक-सी हो तो भी हेतुकी भिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होते हैं।

खेतका काम यदि ठीक ढंगसे न चल रहा हो और उसमें तुम्हारा ही दोष नजर आता हो तो उसे हौसलेके साथ दूर करो। तुम लोग जो बड़ी उम्रके होबालकोंकी जीवनपद्धति तुम्हारे ही रहन-सहनपर आधारित है।

१. यहाँ साधन-सूत्रमें ही कुछ अंश छोड़ दिया गया है ।