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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे यह पता लगता है कि हम लोग जो नौकरी और हुकुमतकी जिन्दगीका उपभोग करते आये है, सो तो निकृष्ट बात ही है। हमारा खानदान जग-जाहिर है, यानी हम लुटेरोंकी टोलीमें शरीक माने जाते है। यह बात तो अपने पूर्वजोंको बिना दोष दिये भी कही जा सकती है कि उन्होंने रियायाकी सेवा तो अवश्य की परन्तु वह की स्वार्थवश ही। साधारण तौरसे देखनेपर यही प्रतीत होगा कि उन लोगोंने उचित न्याय ही किया, यानी जनतापर अधिक जोर-जुल्म नहीं किया। पर आज तो अपना कुटम्ब अत्यन्त हीनावस्थामें है। यदि हमें नौकरी न मिले तो हम सभी मारे-मारे भटकें। नारणदास, जो हमारी नजरमें सबसे ऊँचा है, बम्बईमें गुलामी कर रहा है। दूसरे कुटुम्बीजन या तो भटक रहे हैं या राज्य-कारोबारमें लिप्त रहकर उदरनिर्वाह कर रहे हैं। हम सभी विवाह-शादियां करने-कराने में लगे रहते हैं। माताएं और बहुएँ अपने बच्चोंका विवाह कर देनेके महान् मोहमें पड़ी हैं।

इससे हमारा उद्धार कैसे हो? बन पड़े तो भरसक हमें अपना मार्ग बदलना चाहिए। सर्वोपरि बात तो किसान बनना ही है। पर हमारे दुर्भाग्यसे कृषक जीवनमें अपार कष्ट हों तो हमें जुलाहे या बुनकरका उद्योग करना चाहिए और जिस ढंगका जीवन हम फीनिक्समें बिताते हैं उसी तरहका जीवन बिताना चाहिए। अपनी आवश्यकताएँ हम कमसे-कम रखें। भोजन-पद्धति भी जहाँ तक बन पड़े, वही रखें जिसके बारेमें निर्णय किया जा चुका है। दूध यद्यपि पवित्र वस्तु माना गया है, परन्तु उसे अपवित्र मानकर ही उसका सेवन किया जाये। यह एक महान् परिवर्तन होगा। परन्तु उसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं और इससे होनेवाले परिणाम स्थायी है। यह बात और है कि सभी इसे स्वीकार न करें। यह जानकर भी दूध त्याज्य है कि वह असंख्य लोगोंको नसीब नहीं होता। दूध शुद्ध मांस है और [उसका सेवन] अहिंसा धर्मका विरोधी है-यह विचार मेरे मनसे कभी नहीं हटेगा। इस शरीरसे दूध-घी आदिका सेवन अब किया जा सकेगा, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता। जहांतक बन पड़े, अग्निके प्रयोगके बिना काम चलाया जाये। अपने कुटुम्बके जो बालक यहाँ आना चाहें उन्हें रखना स्वीकृत किया जाये; परन्तु रखे वे तभी जा सकेंगे जब ऊपर लिखे विचारोंका अनुसरण करनेके लिए राजी हों। जो विधवाएँ इस प्रकारका जीवन अपनानके लिए राजी न हों, उन्हें सम्मानपूर्वक बताया जाये कि इस प्रकार जीवन-निर्वाह करने में जो खर्च होता है उससे उन्हें ड्योढ़ा खर्च दे दिया जायेगा। उस ऋणसे इस प्रकार मुक्त हो जायें। इससे अधिक और कुछ नहीं किया जा सकता। शादी-विवाहके बखेड़ेमें तो, वह किसीकी क्यों न हो, पड़े ही नहीं। बड़े होनेपर जो विवाह करना चाहेंगे-स्वयं देख लेंगे। जो कन्याएँ हैं उनके लिए वरोंकी तलाश करनी ही पड़े तो जो तुलसी-दल स्वीकार करके कन्या ग्रहण करना चाहेंगे, उन्हें देंग। एक पाईका भी खर्च नहीं करेंगे। जबतक ऐसा वर नहीं मिलता तबतक राह देखेंगे और लडकीको भी धैर्य रखनेकी सीख देंगे। ऐसा करने में [लोगोंकी ] चर्चाएं सुननी पड़ेगी। तिरस्कार भी होगा पर यह सब प्रेमपूर्वक सहन करेंगे। यदि हमारा आचरण सुदृढ़ रहा तो कोई कठिनाई नहीं होगी। सन्तानोत्पत्ति करना हमारे धर्मका कोई अंग नहीं है और न संसारका विस्तार करना हमारा कर्तव्य है। जैसा-कुछ यह संसार है, उसमें लिप्त हुए बिना इस प्रकार रहा