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पत्र: जमनादास गांधीको


सावधान रहना चाहिए। हम इससे ज्यादा कुछ कर ही नहीं सकते। सच तो यह है कि मौतका हमें हर समय स्वागत ही करना चाहिए।

यदि स्वयं भोजन बनाना बन्द करके तुम समय बचानेकी चेष्टा न करो, तो कोई हज नहीं है। फिलहाल जो व्यवस्था चल रही है, उसे चलने दो। मैं समझता हूँ, इसमें कमसे-कम तीन घंटे लगेंगे। समय तो तुम तभी बचा सकते हो, जब तुम अपने भोजनमें परिवर्तन करो। फिलहाल परिवर्तन करना आवश्यक नहीं है। कैलेनबैकको भी मैंने तदनुसार लिख दिया है। अपनी किताबोंकी सूची दुबारा फीनिक्स भेजो।

बापूके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू. १४९९) से। सौजन्य : राधाबहन चौधरी।

२९४. पत्र : जमनादास गांधीको'

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फाल्गुन बदी ६ [मार्च १७, १९१४]

चि० जमनादास,

गेहूँ और खजूरके विषयमें तुम्हारा लिखना ठीक है। गेहूँका हरएक दाना पौधा पैदा कर सकता है। खजूरके बारेमें ऐसा नहीं है। खजूरका जो हिस्सा हम खाते हैं उसे बोयें तो वह उग नहीं सकता। इसलिए हम जबतक बीचकी स्थितिमें है तबतक खजूर खाने में बहुत दोष नहीं है। मूंगफली खाने में दोष है, यह तो मैं हमेशा कहता आया हूँ। लेकिन हम ऐसी स्थितिमें नहीं पहुँचे है कि उसे छोड़ सकें। जैतूनमें दोष नहीं है क्योंकि जैतूनका बीज [उसके खाद्य हिस्सेसे ] अलग होता है। तुम्हारा यह कहना ठीक है कि तिल खाने में दोष है। अन्त में [तिलका तेल हमें छोड़ना ही है और सूखे मेवेसे मिलनेवाला तेल ही लेना है। यों तो सूखे मेवेमें भी मैंने कहा ही है कि इस दोषकी शक्यता है। उदाहरणके लिए बादाम भी तो बीज ही है। फिर भी विचार करनेसे मालूम होगा कि गेहूं खाने में और बादामका सेवन करने में बड़ा अन्तर है। बादामका पेड़ हमेशा खड़ा रहता है। लेकिन गहूँके पौधेमें से उसका बीज निकाल दिया जाये तो भूसा ही बच जाता है। उसका फिर और कोई उपयोग नहीं रह जाता। गेहूँ बोनमें और तत्सम्बन्धी अन्य प्रक्रियाओं में जो हिंसा है, बादाममें वैसी हिंसा नहीं है। लेकिन इस जाँच-पड़तालमें हम ज्यादा नहीं उतर सकते। मैं स्वयं ज्ञानहीन हूँ और अपनी बुद्धिके अनुसार जो कुछ मैंने सोचा है उसे ही उसके अधूरे और अपक्व रूपमें मैं तुम्हें कह देता हूँ। मूल सिद्धान्त यह है कि जैसे बने वैसे कमसे-कम वस्तुओंसे अपना काम चलाना और जो कुछ लेना वह भी कम ही लेना, उसके विषयमें किसी प्रकारकी शंकाका कारण मैं नहीं देखता। देहको केवल निर्वाहके लिए जितना आवश्यक