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२९८. पत्र : रावजीभाई पटेलको

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फाल्गुन वदी १० [मार्च २१, १९१४ ]

भाई श्री रावजीभाई,

पत्र मिला। तुम्हारे उपवासकी खबर मैंने सुनी थी। यदि सकारण किया हो तब तो मुझे उसमें कुछ कहना नहीं है। तुम्हें वहाँ एकान्त नहीं मिल सकता। फीनिक्समें बाह्य कर्म अधिक होना चाहिए। उसीमें शान्ति है। वहाँ सेवा-धर्मको प्रधान पद दिया गया है।

'जे' की तबीयत बिगड़नेसे में चिन्तित हो गया हूँ। जल्दी ठीक हो जाये तो अच्छा है।

मगनभाईके लिए चित्त व्याकुल रहता है। समझमें नहीं आता कि बात ठिकाने क्यों नहीं आती। मैं भी यही ठीक समझता हूँ कि वे मेरे साथ चले आयें। तुम इसी प्रयत्नमें रहना। स्वदेश पहुँचनेपर देखूगा कि क्या किया जा सकता है। ऐसा लगता रहता है कि यह किसी मानसिक रोगका परिणाम है। जेलमें तबीयत ठीक क्यों रहती थी, इसका कारण सोचता रहता हूँ लेकिन मुझे तो केवल ऊपरवाला कारण ही दिखाई देता है। वहाँ मन विवश होकर स्थिर हो गया था और उसका परिणाम शरीरपर हुआ था-- इस सीमा तक कि चाहे जो खुराक लेते रहनेके बावजूद तबीयत ठीक रही। क्या अब जेलके बाहर वे वैसा मनोराज्य [मनकी वैसी स्थिरता प्राप्त नहीं कर सकते? जो भी हो, मगनभाईके लिए अब यही ठीक लगता है कि वे [ मेरे साथ] भारत चले चलें। लेकिन वे भी इस प्रस्तावपर विचार कर देखें।

एक उदाहरण यहाँ मैं अपना दिये देता हूँ। बा को अदरक खानेकी इच्छा हुई। मैंने अदरक न खानेका व्रत नहीं लिया था इसलिए उसके गुण-दोष परखनेकी दृष्टिसे मैंने भी उनके साथ खाना शुरू किया। बा की जीभ चटोरी है। बा ने अदरकके नरम अंकुरोंको ढूंढ़ निकाला। मुझे वे भा गये और इस हद तक भा गये कि ४-५ चनों-जितने ये कोमल अंकुर मैं भी चबा डालता था। एक दिन बा ने श्रीमती गुलकी टोकरीमें ऐसे कई अंकुर देखे और उनमें से कुछ चुनकर अपनी कोठरीमें ला रखे। मैं तो उन्हें देखकर त्रस्त हो उठा। रात बीती; सुबह उद्वेगपूर्वक जल्दी उठा। मनमें प्रश्न घूम रहा था- अदरक कैसे खा सकता हूँ? जिसकी एक-एक गाँठसे अनेक अंकुर पैदा हो सकते है उसमें अवश्य ही प्रचुर प्राण-तत्त्व है। तब फिर कोमल अंकुर खाना तो सुकुमार बालककी हत्या करने जैसा हुआ। मुझे अपने ऊपर बड़ी ग्लानि हुई। निश्चय किया कि इस शरीरसे तो अब कभी अदरक नहीं खाऊँगा। मजा तो इसके बाद आया। बा ने देखा कि मैं अदरक नहीं खाता। उसने कारण पूछा। मैंने समझाया। वह समझ गई। वह ज्यादा कोमल अंकुर उठाकर ले गई और