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३०२. आयोगको रिपोर्ट और सिफारिशें

पिछले हफ्ते [ भारतीय जाँच ] आयोगकी रिपोर्ट प्रकाशित हो गई। हमें मानना पड़ेगा कि इस रिपोर्टसे सदस्योंकी न्यायबुद्धि प्रकट होती है। तीनों सदस्योंने उसपर एकमत होकर हस्ताक्षर किये है। उसके लिए श्री एसेलेन और श्री वाइली बधाईके पात्र हैं। कभी हमें उनकी नियुक्तिको कड़ी आलोचना करना अपना कर्तव्य जान पड़ा था। किन्तु, उन्होंने अपने पहलेके विचारोंको एक ओर रख दिया और न्याय किया। हमारा खयाल है कि इस शुभ परिणामका कारण भारतीय समाज द्वारा किया गया आन्दोलन ही है।

श्री गांधीने, और उन्हीकी सलाहपर भारतीय समाजके एक बहुत बड़े भागने, आयोगके सम्मुख गवाही नहीं दी, इसलिए आयोगके सदस्यों और लॉर्ड हाडिंजने भी उनकी आलोचना की है। आयोगने आलोचना की, इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं। उसे तो जैसे बने वैसे भारतीयोंको गवाहियाँ चाहिए थीं। यह भी समझमें आने लायक बात है कि वाइसराय महोदयने आलोचना क्यों की। उन्होंने पहले जो सलाह दी थी, उसपर भी उन्हें दृढ़ रहना था और आयोगको अपना समर्थन भी देना था। किन्तु, इस सबके होते हुए, आज भी हमारा यही खयाल है कि भारतीय समाजन गवाही न देकर बहुत बुद्धिमानी की। यह तो स्पष्ट है कि जो सौगन्ध एक बार ले ली, उसे तोड़ा नहीं जा सकता। यदि उन्होंने गवाहियाँ दी होती तो यह सत्याग्रहके मूलपर ही आघात करने जैसा होता। इतना ही नहीं, परिणामसे भी यह सिद्ध होता है कि गवाहियाँ नहीं देकर उन्होंने ठीक किया। हमारे पास कमसे-कम तीन सौ साक्षी थे। दक्षिण आफ्रिकाका प्रत्येक भारतीय मण्डल अपनी शिकायतोंके समर्थनमें गवाही दे सकता था। गोरे लोग गवाही देते, सो अलग। इस तरह हमारी गवाहियाँ लेने में छः महीने बीत जाते। उसके बाद उनके बारेमें अपना निर्णय देनमें आयोग भी कुछ समय लेता। इसका परिणाम यह होता कि संसदके वर्तमान सत्रमें [हमारी शिकायतोंको दूर करनेके लिए] जो विधेयक पेश किये जानेकी सम्भावना है, वह पेश नहीं किया जा सकता। और हमारे लिए इससे अधिक दुःखकी बात और क्या होती? फिर, यदि हमने गवाही दी होती तो आज जो शान्ति और पारस्परिक सद्भावनाका वातावरण छाया हुआ है, वह नहीं होता। श्री ऐंड्रयूजने नम्रता तथा प्रेमके साथ काम करते हुए चुपचाप सुलहके बीज बोये हैं-- यह भी नहीं हो पाता। क्योंकि गवाही देनेसे दुर्भाव बढ़ता। हम भी कड़े वचन कहते और गोरे भी। हमारी गवाहियोंके विरुद्ध गोरे और भी सख्त गवाहियाँ तैयार करते और उस हालतमें श्री एसेलेन और वाइलीमें वह दायित्वभाव नहीं आता जो अन्यथा आया। वैसी स्थितिमें आज हमें समझौतेकी जो परी आशा हो चली है, वह नहीं हो पाती। इस प्रकार हमने लॉर्ड हार्डिज तक की सलाहकी

१. यह सम्पादकीय टिप्पणी के रूपमें प्रकाशित हुआ था ।