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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दिखाया है उसका यही प्रतिदान मैं आपको दूंगा। अक्सर अपने सम्बन्धियों, मित्रों और अपनी प्रिय पत्नीके लिए मेरा स्नेह असाधारण पथका अनुगमन करता है। इसी प्रकार आपके स्नेहके प्रतिदान स्वरूप में कुछ ऐसी बातें कह रहा हूँ जिन्हें सुननेके लिए आप शायद तैयार नहीं थे। पर मुझे लगता है कि ब्राह्मणोंके लिए पुनः अपने सहज गुण प्रतिष्ठित करनेका समय आ गया है। मुझे भवगद्गीताका वह सुन्दर श्लोक याद आता है, पर मैं उसे सुनाकर उपस्थित जनताको उत्तेजित न करूँगा, सिर्फ उसका सार मात्र देता हूँ । सच्चा ब्राह्मण वह है जो पण्डित और अछूत दोनोंके प्रति समभाव रखे।

क्या मायावरम्के ब्राह्मण अछूतोंके प्रति समभाव रखते हैं ? और वे मुझे बतायें कि उनके समभाव रखनेपर भी दूसरे उनका अनुकरण क्यों नहीं करते। यदि वे मुझसे कहें कि वे तो ऐसा करनेको तैयार हैं पर दूसरे उनका अनुकरण नहीं करेंगे तो जब- तक हिन्दू-धर्मके बारेमें मेरी जो धारणा है उसे मैं छोड़ न दूं तबतक उनका विश्वास नहीं कर सकूँगा । और यदि ब्राह्मण स्वयं ऐसा समझते हैं कि वे तपस्या और संयमके कारण उच्च आसनपर विराजमान हैं तब तो उन्हें बहुत कुछ सीखना है; और तब तो निश्चय ही वे ही देशके अभिशप्त और नष्ट होनेके लिए उत्तरदायी ठहरेंगे।

मेरे मित्र श्री अध्यक्ष महोदयने मुझसे यह प्रश्न पूछा है कि क्या देशके नेताओंसे मेरा झगड़ा है, मुझे कहना है, नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा आभास इसलिए होता है कि मैंने बहुत-सी ऐसी बातें सुनी हैं जो मुझे आत्म-सम्मान सम्बन्धी अपने विचारों और मेरी मातृभूमिके आत्म-सम्मानसे बेमेल जान पड़ती हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने अपने कन्धोंपर जो पवित्र कर्तव्य-भार लिया है उसको वे सम्भवतः निभा नहीं रहे हैं। में यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि मैं उन्हें समझने, उनसे कुछ सीखनेकी कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन इतना सत्य है कि अभीतक मैं उन्हें समझ नहीं पाया हूँ । हो सकता है कि मुझमें उनका अनुसरण करनेकी योग्यता और सामर्थ्य न हो। मैं अपने विचारोंपर पुनर्विचार करूंगा। फिर भी आभास तो यही होता है कि अपने नेताओंसे मेरा विरोध है। जो कुछ भी वे करते हैं या जो कुछ भी वे कहते हैं वह किसी-न-किसी कारण मुझे पसन्द नहीं आता। जो-कुछ वे कहते हैं उसका अधिकांश मुझको पसन्द नहीं आता। यहाँ स्वागत अंग्रेजी भाषामें किया जाता है। कांग्रेसके कार्यक्रममें स्वदेशीपर एक प्रस्ताव मिलता है। यदि आप मानते हैं कि आप स्वदेशी हैं और तब भी आप इन्हें अंग्रेजीमें छापते हैं, तो कहना चाहिए कि में स्वदेशीका उपासक नहीं हूँ। मुझे ऐसी बातें असंगत लगती हैं। अंग्रेजी भाषाके विरुद्ध मुझे कुछ नहीं कहना है । परन्तु इतना तो कहूँगा ही कि यदि आप देशी भाषाओंका गला घोट दें और उनकी लाशपर अंग्रेजी भाषाकी इमारत खड़ी करें, (वाह ! वाह ! ) तो आप सही अर्थमें स्वदेशीका समर्थन नहीं कर रहे हैं। यदि आप अनुभव करते हैं कि मैं तमिल नहीं जानता तो आपको मुझे क्षमा करना चाहिए, आप मुझे तमिल सिखलाएँ और सीखनेके लिए कहें। किन्तु आप उस सुन्दर भाषामें ही अपना स्वागत भाषण दें और मेरे लिए उसका अनुवाद करा दें;

१. अध्याय ५, श्लोक १८ ।