मई ४, १९१५
में तुम्हारे पत्रकी बातोंका जवाब ऋमसे दे रहा हूँ। तुम्हारा वकालत पास करना बेकार है। सम्भव है, उससे तुम कुछ अपराधी लोगोंको कानूनी सूक्ष्मताओंके आधार- पर बरी करा सको और कुछ निर्दोष लोगोंको कैदसे भी बचा सको; किन्तु यदि तुम इस बातपर विचार करो कि कितने कम लोगोंको अदालतसे काम पड़ता है तो तुम्हें तुरन्त मालूम हो जायेगा कि वकालत करना कोई मानव-हितका काम नहीं है । वकालत करनेका अधिकार पाये बिना तुम जो कुछ कर सकते हो, वह सब तुम कर ही रहे हो। इससे अधिककी तुम्हें आवश्यकता नहीं है। यदि तुम्हें अवकाश हो तो अवश्य ही कानूनोंको पढ़ो, जैसा कि श्री गोखलेने पढ़ा है; यद्यपि वे वकील नहीं है।
मेरा पहला दौरा करीब-करीब खत्म हो रहा है। मुझे आशा है, इसके बाद में तुमको अधिक नियमित रूपसे पत्र लिख सकूँगा और 'इंडियन ओपिनियन' के लिए भी लेख भेज सकूँगा। मुझे बहुत तरहके अनुभव हो रहे हैं। मैं जो सोचता हूँ सो आज भी भारतमें पाया जाता है। यद्यपि निराशाजनक बातें भी अनेक हैं, किन्तु यहाँ आशान्वित करनेवाली बहुत-सी बातें भी मुझे दिखाई पड़ रही हैं।
हम दोनोंका स्वास्थ्य अच्छा है। यदि हम किसी एक स्थानपर टिक कर रहने लगें तो हमारा स्वास्थ्य और भी अच्छा हो जायेगा। इससे अधिक लिखनेके लिए अभी समय नहीं है।
हम दोनोंका स्नेह लो।
हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी
में सलवानकी विधवा पत्नीसे मिल लिया हूँ और उसे सबसे छोटा लड़का मुझे देनेपर राजी भी कर लिया है। उसे ५ रुपया मासिक भत्ता मिलेगा। मैंने उससे भी अपने साथ हो जानेके लिए कहा; किन्तु वह राजी नहीं हुई।
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ४४१८) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य : ए० एच० वेस्ट