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था उतना ही बड़ा कारण ब्रिटिश राजनयिकोंकी शालीनता और उदारतामें उनकी आस्था भी थी। उन्होंने कांग्रेस-लीग सुधार-योजनाका समर्थन किया और उसके पक्षमें जनमत तैयार करने में पूरा योगदान किया (पृष्ठ ५३७) ।

चम्पारनका संघर्ष भी ब्रिटिश न्याय-भावनाके प्रति उनकी इसी आस्थासे अनुप्राणित था। इस संघर्षमें वे कुल मिलाकर प्रसंगवश ही पड़े थे, और यद्यपि सक्रिय सत्याग्रहकी नौबत आ जानेपर वे उसके लिए भी तैयार थे; फिर भी उनकी दृष्टिमें यह मुख्यतः एक मानवतावादी कार्य ही था, राजनीतिक आन्दोलन नहीं। उन्हें सरकारकी ओरसे चम्पारन जिला छोड़ देनेका आदेश दिया गया, लेकिन उन्होंने उसकी अवज्ञा की और १८ अप्रैल, १९१७ को अदालतमें एक बयान देते हुए (पृष्ठ ३७७-७८) उन्होंने अपने देशमें पहली बार सविनय अवज्ञाके नैतिक आधारकी परिभाषा की, जो इस प्रकार थी,. “हुक्म-उदूलीकी सजा विरोध किये बिना सहन करना है . उसे न माननेका कारण सरकारके प्रति आदर-भावमें कमी नहीं, बल्कि अपने जीवनके उच्चतर विधान -- अन्त- रात्माके आदेशका पालन करना है । २१ अप्रैलको अखबारोंके लिए दिये गये एक वक्तव्य (पृष्ठ ३८१) में गांधीजीने घोषणा की : 'सरकारके आदेशसे मुकदमा वापस ले लिया गया है। मेरे द्वारा की जानेवाली जाँचके दौरान अधिकारी लोग मेरी मदद करेंगे, इसका वचन दिया गया है। अन्ततः गांधीजीने जाँचका कार्य विधिवत् सम्पन्न किया और १३ मई, १९१७ को अपना प्रतिवेदन सरकारकी सेवामें प्रेषित कर दिया । प्रतिवेदनसे प्रकट होता है कि गांधीजीने तथ्योंका कैसा सम्यक् अध्ययन किया था और उन्हें प्रस्तुत करनेमें उन्होंने कितने संयमसे काम लिया था । उसमें आत्म-सम्मानकी गरिमा भी है और समझौतेके लिए उत्साह भी । जो माँगें पेश की गई थीं, उनसे कमकी कल्पना नहीं की जा सकती थी; किन्तु साथ ही प्रतिवेदनमें तत्काल कार्रवाई करनेका आग्रह भी था । एक सच्चे सत्याग्रहीके नाते गांधीजी किसीको विवश करके कुछ लेनेमें विश्वास नहीं रखते थे। उनका विश्वास देनेवालेके सुप्त विवेकको जगाकर प्राप्त करनेमें था । सो अंग्रेज जमींदारोंकी जातीय गौरवकी भावनाको झकझोरनेका प्रयास करते हुए उन्होंने कहा : यह कार्य मैंने इस आशासे हाथमें लिया है कि अंग्रेज जातिके नाते अपने इस विश्वासको ध्यानमें रखकर कि पूरी-पूरी व्यक्तिगत स्वतन्त्र- ताका उपभोग सभीका जन्मसिद्ध अधिकार है, वे अपने गौरवकी ऊँचाई तक उठकर अपने आश्रित किसानोंको भी स्वतन्त्रता देनेकी उदारता दिखायेंगे । (पृष्ठ ३९४) । प्रारम्भमें उन्हें इस प्रयासमें सफलता नहीं मिली, लेकिन अन्तमें सरकारने उनकी बात मान ली। एक जाँच-समिति नियुक्त की गई, जिसके सदस्योंमें गांधीजीको भी शामिल किया गया। समितिकी कार्रवाईके दौरान उन्हें एक-एक बातके लिए लड़ना पड़ा और किसानोंके हितोंको सुरक्षित बनानेके लिए बड़ी सौदेबाजी करनी पड़ी। आखिर उन्हें उनकी समझौतापरक नीतिका पुरस्कार मिला ३ अक्तूबरको समितिके प्रतिवेदनपर सभी सदस्योंने एकमत होकर हस्ताक्षर कर दिये। इस प्रकार गांधीजीका यह सौम्य उद्देश्य कि “मालिकों और रैयतके बीच परस्पर शान्ति स्थापित करूँ, जिससे कि रैयतको भी उतनी स्वतन्त्रता और प्रतिष्ठा मिल जाये जितनी कि मनुष्य-मात्रको मिलनी ही चाहिए" (पृष्ठ ४२९) पूरा हुआ ।