इस दलके सम्बन्धमें मेरे पास पूरे तथ्य है। इनसे प्रकट होता है कि इसमें मध्यम वर्गके लोग हैं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा है कि ये लोग भी इसी राष्ट्र के अंग हैं जिसे भविष्य में स्वायत्त शासन प्राप्त होना है। इस जबरदस्त दलमें भूतपूर्व गिरमिटियों, उनके बच्चों, छोटे-छोटे फेरीदारों, मेहनतकशों और व्यापारियोंमें से लोग आये हैं――ऐसे ही लोगोंसे यह दल बना है। किन्तु फिर भी उपनिवेशीय अपने रुखमें परिवर्तन करना आवश्यक नहीं समझते; और न मुझे यही तर्कसम्मत जान पड़ता है कि आगे कभी उनकी नीति में परिवर्तन होगा। आजकल यह सोचनेका रिवाज ही हो गया है कि चूँकि हमने इस अवसरपर सरकारके प्रति अराजभक्ति नहीं दिखाई है और युद्धमें अपना छोटा-सा हिस्सा अदा किया है, इसलिए हम उन अधिकारोंको प्राप्त करनेके हकदार हो जायेंगे, जिनसे हम अबतक वंचित रखे गये हैं। इससे ऐसा आभास होता है मानो हम इन अधिकारोंसे अबतक इस कारण वंचित रखे गये थे कि हमारी राजभक्ति सन्दिग्ध रही है। किन्तु मित्रो, यह बात नहीं है। हमें इन अधिकारोंसे वंचित रखनेके कारण दूसरे ही हैं; और हमें ये कारण ही बदलने होंगे। इनमें से कुछके पीछे अमिट पुर्वग्रह हैं और कुछके पीछे आर्थिक हेतु। हमें इनकी जाँच करनी होगी; ये पूर्वग्रह मिटाने होंगे।
दक्षिण आफ्रिका, कनाडा और अन्य स्वशासित उपनिवेशोंमें हमारे देशके लोग जिन कष्टोंसे पीड़ित हैं, वे कष्ट क्या हैं? दक्षिण आफ्रिकामें १९१४ के समझौतेसे ठीक उतना ही मिला है जितनेके लिए सत्याग्रही लड़ रहे थे, उससे अधिक नहीं; संघर्ष ब्रिटिश भारतसे प्रवासके सम्बन्धमें कानूनी समानता पुनः प्राप्त करने और कुछ अन्य बातोंके लिए किया जा रहा था। यह कानूनी समानता पुनः प्राप्त हो गई है। दूसरी बातें भी मान ली गई हैं। किन्तु आन्तरिक झगड़े फिर भी बने हुए हैं। दुर्भाग्यसे पिछले तीस वर्षोंसे ही इस अधिवेशनकी प्रमुख भाषा अंग्रेजी चली आती है; यदि ऐसा न होता तो हमारे मद्रासी मित्रोंने उत्तर भारतकी कोई भाषा अवश्य सीख ली होती और तब दक्षिण आफ्रिकासे आये हुए बहुतसे लोग आपको हमारी अपनी किसी भाषामें वे सब कठिनाइयाँ बता सकते जिनका आज भी हमें दक्षिण आफ्रिकामें सामना करना पड़ता है। ये कठिनाइयाँ भूमि-सम्पत्तिके स्वामित्वके सम्बन्धमें हैं; उन लोगोंके सम्बन्धमें हैं जो दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी होनेके बाद फिर दक्षिण आफ्रिकामें आते हैं; उन अधिवासियोंके बच्चोंके प्रवेशके सम्बन्धमें हैं; और व्यापारिक परवानोंके सम्बन्धमें है। दूसरे शब्दों में ये कठिनाइयाँ आजीविकासे सम्बन्धित हैं। अन्य कठिनाइयाँ भी हैं; मैं अभी उन्हें नहीं गिनाऊँगा। कनाडामें उन वीर सिखोंके लिए जो वहाँके अधिवासी हो गये हैं अपने स्त्री-बच्चोंको बुलाना सम्भव नहीं है। (शर्म-शर्मकी आवाजें) कनाडामें यही कठिनाई है। कानून एक ही है, किन्तु उसका अमल लज्जाजनक रूपसे असमान है। मुझे लगता है कि भारतके द्वारा साम्राज्यको दी गई जिस उत्तम सहायताकी बात कही जाती है उसके कारण कानूनका यह असमान अमल बदला नहीं जायेगा।
तब इन कठिनाइयोंको कैसे दूर किया जाये? मैं विस्तारमें नहीं जाना चाहता; किन्तु कांग्रेसका प्रस्ताव यह है कि यह कठिनाई उपनिवेशीय राजनीतिज्ञोंकी न्याय-भावना को जगाकर और साम्राज्य सरकारसे अनुरोध करके दूर की जा सकती है। मुझे लगता है कि कांग्रेस और कुछ कर भी नहीं सकती है। लॉर्ड हार्डिजने कुछ ही मास