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२९६. पत्र: एस्थर फैरिंगको

मोतीहारी
चम्पारन
मई २, १९१७

प्रिय एस्थर,

तुम्हारा पत्र अहमदाबादसे मुझे अभी-अभी मिला है। उसके लिए तुम्हें ‘धन्यवाद’ देना तो निरर्थक उपचार होगा। तुम्हारा लक्ष्य कहीं अधिक गहरा है। यहाँ मुझे जो अनुभव हो रहे हैं उनसे मुझे बहुत आनन्द मिल रहा है। लेकिन अपने आसपास में लोगोंको जो दुःख उठाते देखता हूँ उनसे मुझे कष्ट भी उतना ही मिल रहा है। मैं जानता हूँ कि तुम मेरे लिए वेदना महसूस करती हो क्योंकि तुम स्वयं भी इन सारी कठिनाइयोंके बीचमें रहने और उन्हें [मेरे साथ] झेलनेकी इच्छा रखती हो। लेकिन तुम्हारा काम तुम्हें मिल चुका। जो तुमसे दूर हैं उनके लिए तो तुम भगवान् से प्रार्थना-भर कर सकती हो और यह तो तुम अपने सम्पूर्ण अन्तःकरणसे कर ही रही हो।

मैं सम्भवतः छः माह तक इस जगहको छोड़ नहीं सकूँगा। यहाँ मैं जो काम कर रहा हूँ उसका वर्णन मैं तुम्हें शीघ्र ही किसी दिन लिख भेजूँगा।

जब भी तुम्हें सुविधा हो, आश्रम जरूर हो आओ। तुम्हारा एक घर वह भी है――अगर किसीके एकसे ज्यादा घर हो सकते हैं, तो।

पत्र लिखना चाहो तो ऊपर दिये हुए पतेपर लिखना।

सस्नेह

तुम्हारा,
बापू

[अंग्रेजीसे]
माई डियर चाइल्ड

२९७. पत्र: काका कालेलकरको

बेतिया
मोतीहारी
वैशाख सुदी ११ [मई २, १९१७][१]

भाई श्री काका,

आपका पत्र मिला। आपका आश्रममें पहुँच जाना ठीक हुआ। आपकी आवश्यकता यहाँ[२] हो सकती है, किन्तु मैं आपकी सहायता यहाँ नहीं लूँगा। आपका काम अभी तो राष्ट्रीय शालाके प्रयोगमें जुट जाना है। मुझे वह प्रयोग बहुत आवश्यक दिखता है।

  1. १.काका कालेलकर आश्रम में १९१७ में गये थी।
  2. २. चम्पारनमें, जहाँ गांधीजीने बादमें स्कूल और लोक-कल्याण सम्बन्धी कार्य आरम्भ किये थे।
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