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चम्पारनकी स्थितिके सम्बन्धमें टिप्पणी

होती थी। साथमें जो प्रतिवेदन[१] भेजा जा रहा है वह दोनोंकी इस भेंटका परिणाम है। जाँच चल रही है लेकिन अभीतक लोगोंके बयान स्वयंसेवक [सहायक वकील-मित्र] लिख रहे थे, अब वे नहीं लिखेंगे बल्कि श्री गांधीको ज्यों ही सुविधा होगी त्यों हो श्री गांधी प्रतिदिन कुछ घण्टे किसानोंके बीच बैठेंगे और उनके बयान[२] सुननेके बाद उनके सम्बन्धमें अपना मन्तव्य लिखा करेंगे।

प्रतिवेदनमें जान-बूझकर अल्पोक्तिसे काम लिया गया है; उसमें किसानोंकी दशा जैसी चित्रित की गई है उससे कहीं ज्यादा खराब है। जिसने इस सवालका विशेष अध्ययन न किया हो वह उसे समझ नहीं सकता। कहा जा सकता है कि वहाँ स्थानिक सरकारके शासनकी जगह गोरे जमींदारोंका ही शासन चल रहा है। किसानोंकी ओरसे बोलनेकी किसीको हिम्मत नहीं पड़ती। उन्हें स्थानिक मुख्तारोंकी मदद भी आसानीसे नहीं मिलती। श्री गांधीको कितने ही लोगोंने अकेलेमें मिलकर अत्याचारोंकी जो कहानियाँ सुनाई हैं, बयानों में जो कुछ लिखा गया है, वे उससे ज्यादा भयंकर हैं। फीजी और नेटाल में तकलीफका कारण कोई एक कानून था; अगर वह कानून हटा दिया जाये तो बुराईका उपाय हो जाता था। लेकिन चम्पारनमें फैली हुई बुराई चारों ओर उगनेवाले घासपातकी तरह है जो उगता हो जाता है, बढ़ता ही जाता है और इस तरह फैल-फैलकर जिसने कानून और व्यवस्थाको चौपट कर दिया है। जो कानून किसानोंकी रक्षाके लिए बनाये गये हैं, गोरें जमींदारोंने उन्हींका उपयोग उन्हें गुलाम बनानेमें कर डाला है। चूँकि जमींदारोंने अपनेको कानूनके बाहर माना है इसलिए कई बार तो अदालतोंकी डिगरियोंका भी उनपर कोई असर नहीं होता। इसलिए इस बुराईको रोकनेके लिए भारी कोशिश करनी पड़ेगी, तभी वह रोकी जा सकेगा। विशाल पैमानेपर और संगीन सार्वजनिक आन्दोलन छेड़नेकी आवश्यकता न पड़े और जमींदार [स्वेच्छासे] न्याय करनेके लिए राजी हो जायें, इसके लिए पूरी-पूरी कोशिश की जा रही है। हमारी इच्छा यह है कि सरकारसे जमीदारोंके साथ सख्तीसे बरतनेको कहा जाये और इस प्रकार उक्त रिपोर्टका प्रकाशन टाला जाये; क्योंकि अगर रिपोर्टका प्रकाशन हुआ तो भारतीय जनता [इस कष्ट-गाथा] को सुनकर काँप उठेगी। अगर रिपोर्ट प्रकाशित होती है तो हमारे सार्वजनिक कार्यकर्ता――स्त्रियाँ और पुरुष ――तबतक कभी शान्त नहीं बैठ सकेंगे जबतक कि उसमें गिनाये हुए अत्याचार दूर नहीं हो जाते। इन अत्याचारोंके वर्णन-मात्रसे लोगोंका क्रोध भड़क उठेगा। इसलिए सार्वजनिक आन्दोलन छेड़े बिना समझौता करनेकी कोशिशें की जा रही हैं।

समझौता हो तो, और न हो तो भी गाँवोंमें स्वयंसेवकोंको बिठानेकी आवश्यकता है। ये स्वयंसेवक जमींदारों और किसानोंके बीच कड़ीका काम करेंगे, किसानोंकी हिम्मत बढ़ायेंगे और अपनी उपस्थितिसे उन्हें जमींदारोंके नौकरोंके अत्याचारोंसे बचायेंगे। इन स्वयंसेवकोंसे गांवों में कमसे-कम छः माह तक रहनेकी अपेक्षा है।

 
  1. १. देखिए पिछला शीर्षक।
  2. २. देखिए परिशिष्ट ६।