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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वाले रंगभेदसे सम्बन्धित शिकायतें - •ज्योंकी-त्यों बनी हुई हैं। उन्हें दूर कराने के लिए प्रयत्न करना अब भी निहायत जरूरी है। किन्तु, दूसरी श्रेणीमें आनेवाली ये शिका- यतें गम्भीर होते हुए भी इतनी कष्टदायक नहीं हैं कि उनके कारण सत्याग्रह आन्दो- लन प्रारम्भ किया जाता या उसे चालू रखा जाता ।

फिर उनसे यह सवाल पूछा गया कि संघ-सरकारपर किस खास हलकेसे दबाव पड़ा या वह कौन-सी खास कठिनाई थी, जिसके कारण सरकारको लगभग बाध्य होकर झुकना पड़ा। श्री गांधीने कहा कि जिस चीजके कारण सत्याग्रह आन्दोलनको सफ लता मिल पाई, वह चीज थी उपनिवेशका अनुकूल यूरोपीय जनमत। इस दृष्टि से उन्होंने भारत सरकार और संघ-सरकारके प्रतिवेदनोंका महत्त्व स्वीकार किया, परन्तु उनके विचारसे यदि सत्याग्रहियोंके उद्देश्यके प्रति वहाँके यूरोपीय जनसाधारणका रुख सहानुभूतिपूर्ण न होता तो इन प्रतिवेदनोंसे कुछ फल न होता। उन्होंने कहा कि यदि वहाँको साधारण जनताकी अव्यक्त सहानुभूति प्राप्त न होती तो ये कमजोर, निर्धन और निहत्थे सत्याग्रही एक पराये और बेगान देशमें वैसा शानदार कूच कदापि न कर पाते। अपने कूचके दरम्यान उन्होंने यूरोपीयोंको पानीकी टंकियोंको खाली कर डाला; और उनसे कोई खास हुज्जत भी किसीने नहीं की। जिस देशमें पानीकी इतनी दिक्कत हो, उसमें यह एक बड़ी बात है। कुछ गोरोंने सत्याग्रहियोंको भोजन भी दिया। एक सत्याग्रहीने लालचमें पड़कर किसी यूरोपीयका एक कम्बल चुरा लेनेकी कोशिश की, परन्तु जिस गोरेका वह कम्बल था उसने उस सत्याग्रहीपर मुकदमा दायर नहीं किया, उसे उदारतापूर्वक क्षमा कर दिया। वहाँके गोरे उपनिवेशियोंका समान्यतया क्या रुख है, यह इस घटनासे स्पष्ट हो जाता है । बन्टू, यानी वहाँके मूल उपनिवेशी भी सत्याग्रहियोंके प्रति विरोध-भाव नहीं रखते थे, उलटे भारतीय उद्देश्यके प्रति सहानुभूति दिखाते थे। विरोध रखते थे मुख्यतः कुछ बोअर लोग तथा गोरी यूरोपीय आबादीके व्यापारी और व्यवसायी वर्गके लोग । वहाँके बागान मालिक और व्यापारी ये हो दो वर्ग भारतीय मांगोंके प्रबल विरोधी थे । गोरे व्यापारी भारतीय दुकानदारों और फेरीवालों के प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। बागान-मालिक भारतीयोंका विरोध तो करते थे, परन्तु उनका काम भारतीय मजदूरोंके बिना नहीं चल सकता था ।

जब श्री गांधीसे यह पूछा गया कि गोरे व्यापारी और बागान-मालिक भारतीयों- को बोरिया-बस्ता समेत भारत वापस भिजवा देना चाहते हैं, तब उन्होंने कहा कि बागान-मालिकोंको भारतीयोंकी सख्त जरूरत है, परन्तु वे उन्हें गिरमिटिया मजदूरोंके रूपमें ही चाहते हैं। भारतीयोंके बिना उनके बागान, वीरान हो जायेंगे। वतनी मजदूर भारतीयोंके समान कुशल और मेहनती नहीं होते। दरअसल उस उपनिवेशकी औद्योगिक समृद्धि मुख्यतः भारतीयोंके परिश्रमका ही परिणाम है। श्री गांधीने यह कहकर अपनी बातका रुख मोड़ दिया कि में बागान-मालिकोंसे हमेशा यही कहा करता था कि अगर आप लोगोंको वास्तवमें भारतीयोंकी जरूरत नहीं है तो आप उनका बहिष्कार कीजिए ।