अपने प्रति प्रदर्शित सम्मानके लिए बड़े ही उचित शब्दोंमें कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए श्री गांधीने कहा कि पूना संस्कृति और शिक्षाका केन्द्र है तथा यह अपने नाग- रिकोंकी आत्म-बलिदानकी भावनाके लिए विख्यात है। इस नगरको चाहे में अपना भावी "गेह" बनाऊँ या न बनाऊँ, किन्तु इसे मैं और मेरी पत्नी दोनों एक पवित्र तीर्थ-स्थल मानेंगे। मैंने देशकी बहुत ही थोड़ी सेवा की है, परन्तु उतनी थोड़ी-सी सेवाने भी लोगोंके दिलमें ऐसी बड़ी-बड़ी उम्मीदें पैदा कर दी हैं कि मुझे भय है, आगे चलकर कहीं लोगोंको निराश न होना पड़े। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अगर कहीं ऐसा ही हो जाये तो मेरे कार्यको उदारता और क्षमाशीलताके साथ आँका जाये । भाषण समाप्त करनेके पूर्व उन्होंने कहा कि मेरे पथ-प्रदर्शक और शिक्षकने मुझे कुछ समय तक अपनी जबान बन्द और कान खुले रखनेका प्रयत्न करनेका आदेश दिया है। उन्होंने अपना छोटा और सुन्दर भाषण समाप्त करते हुए, उन्हें जो सम्मान दिया गया था, उसके लिए आभार माना और यह आशा व्यक्त की कि अगर भविष्यमें उनसे कोई भूल हो जाये तो लोग उसे उदारता के साथ देखेंगे।
[ अंग्रेजीसे ]
मराठा, १४-२-१९१५
फरवरी १४, १९१५
ऐसा लगता है इस समय भारतमें घोर कलियुग छाया है। मैं इस देशमें एक माससे भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि भारतमें भारी पाखण्ड फैला हुआ है। मेरा यह दृढ़ विश्वास था कि मैं बारह मास तक भ्रमण करूंगा। इस बीच में कान खुले रखूंगा, सब कुछ सुनूंगा, किन्तु किसी सभामें या किसी विषयमें बोलूंगा नहीं। परन्तु तुम लोगोंसे इतना कहना चाहता हूँ कि जो पुस्तकें तुम्हें पुरस्कारमें दी जा रही हैं, उनको भली- भाँति पढ़ना। उनपर खूब विचार करना और उनमें दिये गये सत्यके मर्मको हर समय ध्यानमें रखते हुए धर्मके मार्गपर चलना। तुम चाहे लड़की हो या लड़के, बड़े होनेपर सांसारिक कर्त्तव्यका भारी बोझ तुम्हारे सिरपर पड़ेगा। इसलिए तुम भविष्यके सम्बन्धमें विचार करो। [ सत्यका ] मर्म केवल अपने धर्मकी पुस्तकोंमें ही नहीं है, बल्कि अन्य धर्मोकी पुस्तकोंमें भी है।
तुम्हारा कर्त्तव्य है कि तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे विचारपूर्वक हृदयंगम करो। धर्म और नीतिकी जितनी शिक्षा तुम्हारे काम आ सकती है उतनी ही लेनी चाहिए।
१. मनमोहनदास शराक द्वारा संस्थापित सनातन धर्म-नीति-शिक्षा-प्रवर्तक समितिके उत्सवमें, जिसकी अध्यक्षता गांधीजीने की ।
२. काठियावाड़ टाइम्ससे ।