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भाषण : गोखलेकी मृत्युपर शान्तिनिकेतनमें

उनके समस्त जीवन-कार्यका आधार अभय था । परन्तु उनमें जितनी निर्भीकता थी, उतनी ही प्रत्येक कार्यको विधिपूर्वक और पूर्णताके साथ करनेकी खूबी भी थी। शास्त्रोंके जो श्लोक उन्हें बहुत प्रिय थे, उनमें से एकका भाव यह है कि वास्तविक बुद्धिमत्ता किसी कार्यको प्रारम्भ करनेमें नहीं, वरन् उसमें अन्त तक लगे रहकर उसे पूरा करनेमें है। सम्यक् रीतिसे काम करनेकी उनकी खूबीका एक दृष्टान्त सुनिए। उन्हें एक अवसर- पर एक विशाल सभामें भाषण देना था और उसके लिए एक छोटा-सा भाषण तैयार करनेमें उन्होंने तीन दिन लगाये। उन्होंने मुझसे यह भाषण लिख डालनेको कहा। मैंने उसे लिखकर उनके सामने रखा। उसे उन्होंने हाथमें लिया और अपनी स्वाभाविक दिव्य मुस्कानके साथ मेरी ओर देखा। फिर उन्होंने मेरे साथ उसकी विवेचना की और तब बोले : "इसे फिरसे लिखो - कुछ बेहतर चीज तैयार करो।" तीन दिन तक वे उसमें जुटे रहे। और अन्तमें उस भाषणको सुनकर श्रोतागण सचमुच गद्गद् हो उठे। वे अपने भाषण सामने नोट्स रखे बिना ही दिया करते थे। कारण, वे उसकी सम्पूर्ण तैयारी कर चुकते थे -इतनी सम्पूर्ण कि, कह सकते हैं वे अपने भाषणोंको अपने रक्तसे लिखते थे । जिस प्रकार अपना हरएक काम सर्वांगपूर्ण रीतिसे करनेकी टेव थी और निर्भीकता थी, उसी प्रकार उनमें विनम्रता भी थी। मानवता तो उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी और उसकी छाप उनके प्रत्येक कार्यपर होती थी। कभी-कभी वे झल्लाते भी थे, परन्तु शीघ्र ही अपनी मुस्कानके साथ इन मधुर शब्दों में सम्बन्धित व्यक्तिसे फिर वह कोई बड़ा आदमी हो अथवा अदना-सा नौकर ( - क्षमा माँग लेते थे: “मुझे मालूम है कि आप मुझे क्षमा कर देंगे - नहीं करेंगे क्या?"

उनके जीवनके अंतिम दिन बड़े संघर्षमय बीते। और यह संघर्ष था अपनी अन्तरा- त्माके ही साथ। उन्हें यह निर्णय करता था कि क्या उन्हें अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्यकी परवाह न करते हुए संघर्ष में भाग लेते ही जाना चाहिए। उनकी अन्तरात्माकी आवाज ही उनके प्रत्येक कार्यको अनुशासित करती थी । अन्तरात्माके प्रति उनकी निष्ठा सच्ची थी, दिखावटी नहीं। इसलिए वे आज भी जीवित हैं। ईश्वर करे, हममें उनकी अंतिम इच्छाको पूरा करनेकी शक्ति आये । भारत सेवक समाज के जो सदस्य उस समय उनके पास थे उनसे उन्होंने ये अन्तिम शब्द कहे थे : “ मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई स्मारक बनवाया जाये, या मेरी प्रतिमा खड़ी की जाये। मेरी कामना केवल यही है कि लोग देशसे प्रेम करते रहें और आवश्यकता पड़नेपर उसके लिए प्राण भी न्यौछा- वर कर दें। ” उनका यह सन्देश केवल उन्हीं सदस्योंके लिए नहीं, वरन् समस्त देशके लिए है। सेवा-धर्म अपनाकर ही वे अपने स्वभावको परख पाये, देशको जान सके । भारतके प्रति उनका प्रेम सत्यपर आधारित था, इसीलिए वे भारतके लिए जो भी चाहते थे वही मनुष्य-मात्रके लिए भी । उनका प्रेम अन्ध-प्रेम न था, क्योंकि वे भारतकी दुर्बलताओं और त्रुटियोंसे परिचित थे । यदि हम भारतको उसी प्रकार प्यार कर सकें तो भारतकी सेवामें जीवन बितानेकी कला सीखनेके लिए हमारा शान्तिनिकेतन आना सार्थक है। आप उनके उस उत्साह और जोशका जो उनके हरएक काममें झलकता था; उस प्रेमका जो उनके जीवनका मूलमन्त्र था, उस सत्यनिष्ठाका जो उनके प्रत्येक कार्यकी