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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पेश आ रहे हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि रेलवे प्रशासन नहीं चाहता कि तीसरी श्रेणीके यात्रियोंके साथ ये विवेक-शून्य अधिकारी किसी तरह अशिष्टतापूर्ण व्यवहार करें ।'

आपका आज्ञाकारी सेवक

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें अंग्रेजी मसविदे (सी० डब्ल्यू० ५६६७) से।

सौजन्य : राधाबेन चौधरी

३५. पत्र : रतिलाल एम० सेठको

सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी

पूना

फाल्गुन सुदी १३ [ फरवरी २७, १९१५]

भाई श्री रतिलाल,

आपका पत्र मिला। मेरी तबीयत अच्छी होती जा रही है।

आप देशी कर्वेका उपयोग करना चाहते हैं, यह बात मुझे बहुत जँचती है। मेरी सलाह यह है कि धीरजके साथ देशी कर्थेका उपयोग करनेपर यदि उसमें कुछ परिवर्तन करना ठीक लगे तो किया जाये। आदमी बुद्धिमान हो, फिर वह अच्छी तरह देशी कर्धा चलाना सीखे और उसपर कपड़ा बुने, तभी वह उसमें खोज करके सुधार कर सकता है। ठीक भी यही है। मुझे लगता है कि सूत भी खुद अपने चरखेपर ही कातना चाहिए। मुझे इसीमें देशके गरीबोंकी समृद्धि दिखाई देती है। मिलनेपर इसके बारेमें और बातें होंगी।

जो मनुष्य मनमें यह मानता है कि यह शरीर तो क्षण-भंगुर है, वह सदा मृत्युका आलिंगन करनेके लिए तैयार रहेगा। इसके लिए गृहस्थको ऐसा आचरण करना चाहिए कि उसकी बाह्य प्रवृत्तियोंकी सीमा निर्धारित रहे और आन्तरिक प्रवृत्तियाँ विकसित ही होती जायें। इस नियमका अनुकरण करते हुए आप गृहस्थ होते हुए भी विषय- सेवनकी सीमा बना सकते हैं। कुछ हद तक आप अपने व्यवसायमें भी पवित्रता ला सकते हैं। किसी भी कामको आरम्भ करते समय आप अपने मनसे यह पूछ सकते हैं कि वह आवश्यक है या नहीं। ऐसा करते हुए आप सहज ही यह भी जान लेंगे कि आपकी भलाई किसमें है। विशेष स्पष्टीकरण बातचीतसे ही हो सकता है।

१. मार्च २७ को गांधीजीको इसका उत्तर देते हुए कार्यवाहक डिविजनल ट्रैफिक मैनेजरने रेलवे कर्मचारियोंके कृत्यको समुचित ठहराया । उसने लिखा, चूँकि किरायेका अन्तर नियमानुसार ही लिया गया और चूँकि इस बातके समर्थन में मुगलसराय में कोई लिखित प्रमाण नहीं है कि आप लोगोंने वहाँसे जबलपुर तक तृतीय श्रेणीमें यात्रा की, इसलिए साधारण परिस्थितियों में अतिरिक्त किरायेकी रकम वापस नहीं की जानी चाहिए। किन्तु मैं आपके कथनको सत्य मान लेनेको तैयार हूँ और मनिऑर्डर द्वारा मुगलसरायसे जबलपुर तकके किरायेके अन्तरकी रकम भेज दूँगा।

२. गांधीजी इस तारीखको पूनामें थे।