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पत्र : डी० बी० शुक्लको

आपके पास कैसा कपड़ा रहता है, यह लिखिएगा।

में जो-कुछ लिखता हूँ या कहता हूँ उसके सम्बन्धमें इतना याद रखें कि मैं भी आपकी तरह विद्यार्थी ही हूँ। सम्भव है, मुझे कुछ ज्यादा अनुभव हो। आप चाहें तो इस अनुभवका लाभ उठा लें।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ४६४८) से। सौजन्य : नारणदास गांधी

३६. मथुरादास त्रिकमजीको लिखे पत्रका अंश

पूना

फाल्गुन सुदी १४, फरवरी २८, १९१५

मुझे तुम्हारा पत्र यहाँ मिला। फिलहाल तो मुझे यही आवश्यक लगता है कि तुम भविष्यकी तैयारी करो । मेरा खयाल है यदि तुम हिन्दी और मराठीका अध्ययन भाषाओंके रूपमें करो तो ठीक होगा। साथ ही कर्घेसे कपड़ा बुनना सीखो तो और भी अच्छा हो । रोज नियमसे घूमने जानेकी टेव न डाली हो तो अब डालना । दिनमें कमसे-कम चार घंटे तो शारीरिक श्रम करना ही चाहिए।

पहले 'योगदर्शन " पूरा पढ़ लो। फिर दूसरी पुस्तकके सम्बन्धमें सोचेंगे । मैं वहाँ सम्भवतः गुरुवारको पहुँचूँगा और उसी दिन वापस बोलपुरको चल पडूंगा।

[ गुजरातीसे ]
बापुनी प्रसादी
३७. पत्र : डी० बी० शुक्लको

फाल्गुन बदी १ [ मार्च २, १९१५]

भाईश्री,

आपका पत्र मिला। आपने १,५०० रुपये भेजे; इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। मेरी तबीयत पहलेसे काफी अच्छी है। पसलीमें दर्द तो अभी है; किन्तु डॉ० देवने कहा है कि अब प्लूरिसी तो नहीं है ।

१. पतंजलिका योगदर्शन । देखिए खण्ड ९, पृष्ठ १२० ।

२. डाकखानेकी मुहरसे ।

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