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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पूज्य गोखलेके देहावसानसे मेरी दशा पंखहीन पक्षीकी-सी हो गई है। यहाँसे गुरु- वारको बोलपुर वापस जानेका विचार है।

मोहनदासके वन्देमातरम्

आदरणीय भाई श्री दलपतराम भवानजी शुक्ल
बैरिस्टर
सिविल स्टेशन
राजकोट

गांधीजी के स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (जी० एन० २३२६) से ।

३८. पत्र : सर विलियम वेडरबर्नको

मार्च ३, १९१५

प्रिय सर विलियम,

हम लोगोंपर जो राष्ट्रीय विपदा आ पड़ी है, उसके कारण आपके पत्रका उत्तर देनेमें देर हो गई।

जैसी मंजूषा भेजी गई है, वैसी बहुत-सी भारत भी ले आई गई हैं। परन्तु ऐसा समझिए, मानो केप टाउनवाली मंजूषाको इंग्लैंड ही जाना था। दक्षिण आफ्रिकामें प्राप्त मंजूषाओंमें वह अन्तिम थी, और वह मुझे ठीक साऊदैम्पटन रवाना होनेके दिन भेंट की गई थी। तब हम लोग लन्दन में रुके, और इसी बीच उस मंजूषाको इंग्लैंडमें ही छोड़ आनेका विचार आया। श्री रॉबर्ट्स, श्री कैलेनबैंक और में इस निष्कर्षपर पहुँचे कि उसे रखने के लिए सर्वोत्तम संस्था आपका निवास स्थान ही है। मुझे जिस व्यक्तिके लिए प्रेम-भाव रखने और जिसे भारतके सबसे बड़े हितैषियों में से एक माननेकी शिक्षा दी गई है, यह उसके प्रति मेरे व्यक्तिगत सम्मानकी एक छोटी-सी अभि- व्यक्ति मात्र है। इस मंजूषाको आपके पास रखना दोनों राष्ट्रोंको एकताके सूत्र में आबद्ध करनेका एक प्रयास सिद्ध हो सकता है।

अतः मेरा निवेदन है कि आप उसे अपने ही पास रखें। मुझे विश्वास है कि यदि श्री गोखलेने आपका पत्र पढ़ा होता तो वे भी आपसे यही प्रार्थना करते जो मैं कर रहा हूँ।

आदर-सहित,

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० २१६४५ सी०) से।

१. राजकोटके एक बैरिस्टर, गांधीजीके मित्र और सहपाठी ।

२. सर विलियम वेडरबर्न, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके १८९९ के बम्बई अधिवेशनके अध्यक्ष।