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हिन्दू धर्मके माथेपर कलंक


वर्णकी मेरी की हुई व्याख्या या तारीफके हिसाबसे तो आज हिन्दू धर्ममें वर्णधर्मका अमल होता ही नहीं। ब्राह्मण नाम रखनेवाले विद्या पढ़ाना छोड़ बैठे हैं। वे और-और धन्धे करने लगे हैं। यही बात थोड़ी-बहुत दूसरे वर्णों के बारे में भी सच है। असलमें विदेशी हुकूमतके नीचे होनेके कारण हम सब गुलाम हैं और इस तरह पश्चिमवालोंकी निगाहमें शूद्रसे भी हल्के अछूत हैं।

ईश्वर यह अत्याचार क्यों चलने देता है? रावण राक्षस था, पर यह अस्पृश्यतारूपी राक्षसी तो रावणसे भी भयंकर है। और इस राक्षसीकी धर्मके नामपर जब हम पूजा करते हैं, तब तो हमारे पापकी गुरुता और भी बढ़ जाती है। इससे हब्शियोंकी गुलामी भी कहीं अच्छी है। यदि इसे धर्म कहें तो ऐसे धर्मसे मुझे घृणा होती है। यह हिन्दू धर्म हो ही नहीं सकता। मैंने तो हिन्दू धर्म द्वारा ही ईसाई धर्म और इस्लामका आदर करना सीखा है। फिर यह पाप हिन्दू धर्मका अंग कैसे हो सकता है? पर क्या किया जाये?

इस पाखण्ड और अज्ञानके खिलाफ यदि जरूरत पड़े तो मैं अकेला लडूँगा, अकेला तपश्चर्या करूँगा और उसका नाम जपते हुए मरूँगा। शायद ऐसा भी हो कि मैं किसी दिन पागल हो जाऊँ और कहने लगूँ कि मैंने अस्पृश्यता सम्बन्धी विचारोंमें भूल की। अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मका पाप कहकर मैंने पाप किया, तो आप मानना कि मैं डर गया हूँ, सामना नहीं कर पाया और हारकर अपने विचार बदल रहा हूँ। उस दशामें आप मानना कि मैं बेहोशीमें क्या-कुछ बक रहा हूँ।

मेरी अल्प बुद्धिके अनुसार तो भंगी जो मैल उठाता है, वह शारीरिक है और वह तुरन्त दूर किया जा सकता है। किन्तु जिनपर असत्य और पाखण्डका मैल चढ़ गया है, उनका मैल इतना सूक्ष्म है कि उसे दूर करना बहुत कठिन है। यदि किसीको अस्पृश्य गिन सकते हैं तो असत्य और पाखण्डसे भरे हुए इन लोगोंको हो।[१]

गोधराके महारवाड़ेमें भंगी, डोम आदि अछूत जातियोंका जो जलसा हुआ था उसके सम्बन्धमें 'गुजराती' नामक पत्रमें बड़ी आलोचना की गई है। और इन आलोचकोंने वास्तविक घटनाका विवरण तोड़-मरोड़कर दिया है और उससे पाठकोंके मनमें भ्रम उत्पन्न किया है। अतः उसे दूर करने के लिए मैं निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।

धर्म सम्बन्धी बातोंमें मैं अपने आपको बालक नहीं, किन्तु खासा ३५ वर्षोंका तजुर्बेकार समझता हूँ। क्योंकि इतने वर्ष मैंने धर्मके विषयका विचार और मनन किया है। विशेषकर मुझे जहाँ-जहाँ सत्य दीख पड़ा, वहाँ-वहाँ मैंने उसे कार्यमें परिणत किया। मेरी धारणा है कि निरे शास्त्राभ्याससे ही धर्मका स्वरूप. हस्तगत नहीं होता। हम

 
  1. इसके बाद यहाँ जो अनुच्छेद आते हैं उनका सारांश गांधीजीने अपने उस पत्रमें भी दिया है जो उन्होंने नवम्बर ५, १९१७ को गोधरामें हुई अन्त्यज परिषद्की गुजराती द्वारा की गई टीका-टिप्पणीके सम्बन्धमें उसको लिखा था। पत्र गुजरातीके ३०-११-१९१७ के अंकमें प्रकाशित किया गया था।

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