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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

सदा ही देखते हैं कि शास्त्र-पठन किये बिना और नियमोंके पालनके बिना मनुष्य मनमाने मार्गसे चलने लगता है। मैं ऐसे मनुष्यसे शास्त्रका अर्थ न पूछूँगा, जिसने लोगोंसे पण्डित कहानेके लिए शास्त्र पढ़े हैं। इसीलिए मैक्समूलर जैसे महान् विद्वानोंने विकट अध्ययनके अनन्तर जो पुस्तकें लिखी हैं उनसे भी मैं अपने आचरण सम्बन्धी नियम बनानेमें सहायता न लूँगा। आजकल अपनेको शास्त्रोंके ज्ञाता कहनेवाले बहुतेरे लोग अज्ञानी और दम्भी ही पाये जाते हैं। मैं धर्मगुरुकी खोजमें हूँ। गुरुकी आवश्यकता है, यह मैं मानता हूँ। परन्तु जबतक मुझे कोई योग्य गुरु न दीख पड़े, तब-तक मैं अपने आपको ही अपना गुरु मानता हूँ। यह मार्ग विकट अवश्य है, परन्तु आजकलके इस विषम-कालमें यही योग्य जान पड़ता है। हिन्दू धर्म इतना महान् और व्यापक है कि आजतक कोई उसकी व्याख्या करने में कृतकार्य नहीं हो सका। मेरा जन्म वैष्णव सम्प्रदायमें हुआ है और इसके सिद्ध सिद्धान्त मुझे बड़े ही प्रिय है। वैष्णव धर्ममें अथवा हिन्दू धर्ममें मुझे कहीं यह विधान नहीं मिला कि भंगी, डोम आदि जाति अस्पृश्य हैं। हिन्दू धर्म अनेक रूढ़ियोंसे घिरा हुआ है। उनमें से कुछ रूढ़ियाँ प्रशंसनीय हैं, शेष निन्द्य हैं। अस्पृश्यताकी रूढ़ि तो सर्वथा ही निन्द्य है। इसकी बदौलत दो हजार वर्षोंसे धर्मके नामपर पापकी राशि हिन्दू धर्मपर लादी जाती रही है और अब भी लादी जाती है। मैं इस रूढ़िको पाखण्ड कहता हूँ। इस पाखण्डसे आपको मुक्त होना पड़ेगा; और इसका प्रायश्चित्त आप कर ही रहे हैं। इस रूढ़िके समर्थनमें मनुस्मृति आदि धर्म-ग्रन्थोंके श्लोक उद्धृत करनेसे कोई लाभ नहीं। इन ग्रन्थोंमें कितने ही प्रक्षिप्त श्लोक हैं। कितने ही श्लोक नितान्त अर्थहीन हैं। फिर मनुस्मृतिकी प्रत्येक आज्ञाका पालन करनेवाला या पालन करनेकी इच्छा रखनेवाला एक भी हिन्दू मेरे देखनेमें नहीं आया। और यह सिद्ध करना बहुत सहज है कि जो ऐसा करेगा वह अन्तमें गिरकर रहेगा। धर्म-ग्रन्थोंमें मुद्रित प्रत्येक श्लोकका समर्थन कर देनेसे सनातन धर्मकी रक्षा न होगी, बल्कि उनमें प्रतिपादित त्रिकालाबाधित-तत्त्वोंको कार्यरूपमें परिणत करनेसे ही उसकी रक्षा होगी। जिन-जिन धार्मिक नेताओंसे इस विषयमें सम्भाषण करनेका मुझे अवसर मिला है, सबने इस बातको स्वीकार किया है। उन धर्म-प्रचारकोंने, जिनकी गणना विद्वानोंमें होती है और जो समाजमें पूज्य माने जाते हैं, स्पष्ट कहा है कि भंगी, डोम आदिके साथ हम लोग जैसा बर्ताव करते हैं उसका इसके सिवा और कोई आधार नहीं कि वैसी रूढ़ि या प्रथा चल गई है। सच पूछिये तो इस रूढ़िका कोई पालन भी नहीं करता। रेलमें उनका स्पर्श होता है। मिलोंमें उनसे काम लिया जाता है और हम उन्हें बेहिचक छूते हैं। फर्ग्युसन तथा बड़ौदा कालेजोंमें अन्त्यज प्रविष्ट किये गये हैं। इन सब बातोंमें समाज बाधा नहीं डालता। अंग्रेजों और मुसलमानोंके घरोंमें उनका सत्कार किया जाता है और अंग्रेजों या मुसलमानोंको छूनेमें हमें कुछ भी संकोच नहीं होता, बल्कि इनमें से कितनोंके साथ हाथ मिलानेमें तो हम उलटा गौरव समझते हैं। ईसाई धर्म ग्रहण कर लेनेपर इन्हीं अन्त्यजोंको हमें अछूत माननेका साहस नहीं होता। इस प्रकार जिस रूढ़िका पालन करना असम्भव है, व्यक्तिगत मत भिन्न होनेपर भी, उसका समर्थन कोई समझदार हिन्दू नहीं कर सकता।