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भाषण : उमरेठमें

करती थीं। यदि आप ऐसा मानते हैं कि गोखलेकी तसवीरका उद्घाटन करनेसे उनकी आत्माको शान्ति मिलेगी, तो वह सही नहीं है। मरते समय इस महात्माने अपनी चिर-पोषित इच्छा स्पष्ट कर दी थी। उन्होंने कहा "मेरी मृत्युके बाद मेरा जीवन-चरित्र लिखा जाये, मेरा स्मारक बनाया जाये या शोक-प्रदर्शनकी सभाएँ हों, तो उनसे मेरी आत्माको शान्ति नहीं मिलेगी। मेरा जीवन सारे भारतका जीवन बन जाये, और संस्थापित भारत-सेवक-समाजकी प्रगति हो, यही मेरी अभिलाषा है।" जो लोग उनका यह वसीयतनामा स्वीकार करते हों, उन्हींको उनकी तसवीरका उद्घाटन करनेका अधिकार है।

गोखलेने अपने जीवनमें बहुतसे काम किये; मगर आज तो मैं यहाँ आई हुई बहनोंके ध्यानसे उनके जीवनके कुछ कौटुम्बिक प्रसंग ही सुनाऊँगा। बहनोंको गोखलेके इस उदाहरणसे सीख लेनी चाहिए कि उन्होंने अपने कुटुम्बकी काफी सेवा की थी। उन्होंने ऐसा कोई काम कभी नहीं किया जिससे कुटुम्बका जी दुखे। आजकल हिन्दू परिवारों में लड़कीको गुड़ियाकी तरह ब्याहकर आठ वर्षकी उम्रमें ही अथाह संसार सागरमें ढकेल दिया जाता है। लेकिन गोखलेने वैसा नहीं किया। उनकी लड़की अभी भी अविवाहित है। ऐसा करने में उन्हें काफी मुसीबतें सहन करनी पड़ी। उनकी युवावस्थामें ही उनकी पत्नीकी मृत्यु हो गई थी। वे फिरसे विवाह कर सकते थे, पर उन्होंने वैसा नहीं किया। अपने कुटुम्बकी सेवा तो उन्होंने अनेक तरहसे की। दूसरे लोग भी सामान्यतः कुटुम्ब-सेवा करते ही होंगे। परन्तु कुटुम्ब-सेवा दो तरहसे हो सकती है—एक स्वार्थदृष्टिसे और दूसरी स्वदेशहितकी वृत्तिसे। गोखलेने स्वार्थवृत्तिको तिलांजलि दे दी थी। पहले कुटुम्ब, उसके बाद ग्राम और फिर देश—जिस समय जिसके प्रति कर्त्तव्य करनेका प्रसंग उपस्थित हुआ, उस समय वही कर्त्तव्य उन्होंने सम्पूर्ण साहस, लगन और श्रमसे पूरा किया।

गोखलेके मनमें हिन्दू-मुसलमानके भेदका लेशमात्र भी नहीं था। वे सबको समान दृष्टिसे और स्नेहभावसे देखते थें। कभी-कभी वे नाराज हो जाते थें, लेकिन उनकी यह नाराजी स्वदेशके हितके साथ सम्बन्ध रखनेवाली होती थी और विपक्षीके मनपर उसका अच्छा ही असर होता था। उनके क्रोधकी इस विशेषताके कारण ही जो यूरोपीय पहले उनके प्रति शत्रुताका भाव रखते थें, उनके गाढ़े मित्र बन गये थें।

जो व्यक्ति गोखलेके सम्पूर्ण जीवनपर दृष्टि डालेंगे वे देखेंगे कि उन्होंने अपने जीवनको देश-सेवाका पर्याय ही बना डाला था। वे अपनी उम्रके पचास वर्ष पूरे होनेके पहले ही इस दुःखपूर्ण संसारसे चले गये और इसका एकमात्र कारण था चौबीसों घन्टे तन और मनसे अनवरत देश-सेवा। अपने और अपनी गृहस्थीकी छोटी-मोटी बातोंको तो वे अपने मनमें कोई जगह ही नहीं देते थे। उनको केवल इस बातकी चिन्ता रहती थी कि वे दे शके लिए क्या कर सकते हैं। गोखलेकी महान् आत्माको हमारे भारतकी शक्ति—अन्त्यज वर्ग—के उद्धारका प्रश्न भी सदा चिन्तित रखता था। उनके उद्धारके लिए उन्होंने बहुत प्रयत्न किये। अगर कोई उन्हें वैसा करते देखकर टोकता, तो वे साफ कह देते थें कि अपने भाई अन्त्यजोंको छूनेसे हम भ्रष्ट नहीं होते, बल्कि अस्पृश्यताकी दुष्ट भावना रखनेसे ही घोर पापमें पड़ते हैं।