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समाचारपत्र


समाचारपत्रोंका कार्य है लोक-शिक्षा। इन्हींके द्वारा लोगोंको आधुनिक इतिहासकी जानकारी होती है। यह काम कम जिम्मेदारीका नहीं है। इतना होनेपर भी हम महसूस करते हैं कि पाठक-समुदायका समाचारपत्रोंपर पूर्ण विश्वास करना सम्भव नहीं है। अनेक बार तो समाचारपत्रोंमें दिया गया विवरण घटनासे बिलकुल विपरीत होता है। यदि समाचारपत्र लोगोंको शिक्षित करना अपना कर्त्तव्य समझें तो समाचार देनेसे पहले उसकी जाँच करनेसे न चूकें। इसमें सन्देह नहीं कि इनको अनेक बार कठिन परिस्थितियोंमें काम करना पड़ता है। बहुत ही अल्प-समयमें इन्हें सत्य-असत्यका निर्णय करना पड़ता है और प्रायः अनुमानके आधारपर सत्य निर्धारित करना होता है। इतना होनेपर भी मैं मानता हूँ कि जिस समाचारके सही होनेका निश्चय न हो सके उस समाचारको प्रकाशित न करना ही अधिक उचित है।

इनमें वक्ताओंके भाषणकी जो रिपोर्ट दी जाती है वह अधिकतर दोषपूर्ण होती है। रिपोर्टको सही-सही उतारने की क्षमता बहुत ही कम लोगोंमें होती है इसीलिए सामान्यतः देखने में आता है कि भाषणोंकी खिचड़ी बन जाती है। सबसे अच्छा नियम तो यही है कि भाषणके "प्रूफ" स्वयं वक्ताके पास संशोधनके लिए भेज दिये जायें और यदि वह उनमें संशोधन न करे तो समाचारपत्र अपनी ली हुई रिपोर्ट ही प्रकाशित कर सकते हैं।

अनेक बार यह देखने में आता है कि समाचारपत्र मात्र स्थान भरने के लिए ऐसी-वैसी सामग्री प्रकाशित कर देते हैं। यह चलन सर्वव्यापक है। पश्चिममें भी ऐसा ही है। उसका कारण यह है कि समाचारपत्र मुख्यतः धन कमानेपर नजर रखते हैं। समाचारपत्र [जनताकी] भारी सेवा करते हैं, इसमें सन्देह नहीं। इससे उनके दोष ढक जाते हैं। लेकिन मेरे मतानुसार वे जितनी सेवा करते हैं उससे कम हानि नहीं करते। पश्चिमके कुछ-एक पत्र इतनी अनीतिसे भरे हुए होते हैं कि उनका स्पर्श करना भी दोषपूर्ण है। अनेक पत्र पूर्वाग्रहसे भरे होनेके कारण लोगोंमें द्वेषका प्रसार करते हैं अथवा उसे और भी बढ़ाते हैं। अनेक बार वे परिवारों और जातियोंमें कटुता पैदा कर देते हैं। इस प्रकार लोक-सेवा करने के बावजूद वे टीका-टिप्पणीसे बच नहीं सकते। कुल मिलाकर उनके अस्तित्वसे, हानि और लाभ होनेकी समान सम्भावना है।

समाचारपत्रोंमें यह पद्धति देखनेमें आती है कि वे मुख्य रूपसे चन्दोंपर नहीं बल्कि विज्ञापनोंकी रकमके ऊपर निर्भर करते हैं। इसका परिणाम हानिकारक सिद्ध हुआ है। जो समाचारपत्र मदिरा-पानके विरुद्ध लिखता है उसमें ही मदिराका बखान करते हुए विज्ञापन दिया गया होता है। जिस समाचारपत्रमें हम तम्बाकूके दोषोंको पढ़ेंगे उसीमें अच्छेसे-अच्छा तम्बाकू कहाँ बिकता है, वह भी पढ़नेको मिल जायेगा। किसी नाटकका लम्बा विज्ञापन और उसकी [विपरीत] आलोचना एक ही पत्रमें देखने में आ सकती है। दवाइयोंके विज्ञापनमें अधिकसे-अधिक कमाई होती है फिर भी दवाइयोंके विज्ञापनसे प्रजाका जितना नुकसान हुआ है और हो रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं है। इन विज्ञापनोंके कारण समाचारपत्रोंने [लोगोंकी] जो सेवा की है उसपर लगभग हरताल फिर जाती है। दवाइयोंके विज्ञापनसे हुए नुकसानको मैंने खुद अपनी आँखोंसे देखा है। अनेक व्यक्ति इन विज्ञापनोंसे आकर्षित होकर हानिकर दवाइयोंको खरीद लेते हैं। अनेक