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सन्देश : गुजराती हिन्दू स्त्री-मण्डलको

कार्यके लिए बिलकुल तैयार नहीं करती। यहाँ मैं न तो आधुनिक शिक्षाके दोषोंकी छानबीन करनेके झमेले में पड़ना चाहता हूँ और न इन दोषोंका निवारण कैसे हो, इस प्रश्नपर मगजपच्ची ही करना चाहता हूँ। मेरी तो इतनी ही इच्छा है कि शिक्षित बहनें इस प्रश्नको अपना मानकर तथा जिन्हें कुछ अनुभव है वे बहनें भी, अपना सर्वस्व समर्पित करके इस विषयपर गुजरातको जागृत करें और सही दिशाका ज्ञान करायें।

शिक्षित स्त्रियाँ अशिक्षितोंके साथ सम्पर्क स्थापित नहीं करतीं, और प्रायः ऐसे सम्पर्कको बढ़ावा नहीं देतीं। इस रोगका उपचार करना चाहिए। शिक्षित स्त्रियोंको अपने सहज कर्त्तव्यका भान करानेकी आवश्यकता है। इन दोषोंसे पुरुष-वर्ग भी मुक्त नहीं है, लेकिन स्त्रियोंको पुरुषोंके पीछे-पीछे चलनेकी जरूरत नहीं। स्त्रियोंमें नवीन भावनाओंके सृजनकी तथा उनको व्यवहारमें लानेकी जो शक्ति विद्यमान है वह पुरुषोंमें नहीं है। पुरुष अपेक्षाकृत अविचारी, उतावला और सदैव नवीनताकी खोज में लगा रहनेवाला होता है। स्त्री गम्भीर, धैर्यवान् और अधिकतर पुरानी वस्तुओंसे चिपककर रहनेवाली होती है। इसलिए उसे जब भी कोई नई वस्तु सूझ पड़ती है तो उसकी उत्पत्ति स्त्रीके हृदयकमलसे होती है। इस प्रकार उद्भूत हुई वस्तुके प्रति उसकी अचल श्रद्धा होती है और इस कारण उसका प्रचार जल्दी हो सकता है। अतएव मेरी मान्यता है कि यदि शिक्षित स्त्रियाँ, पुरुषोंकी नकल करना छोड़ दें और स्त्रियों-सम्बन्धी महान प्रश्नोंपर स्वतन्त्र रूपसे विचार करें तो हम अनेक उलझनोंको आसानीसे सुलझा सकते हैं।

विधवाओंका प्रश्न साधारण प्रश्न नहीं है। इसमें अनेक स्त्रियाँ अपना जीवन अर्पित कर सकती हैं। विधवा अपनी इच्छानुसार पुनर्विवाह करे यह एक बात है और बाल-विधवाओंको पुनः लग्न करनेकी शिक्षा देने में समय गँवाना दूसरी बात है। इसके बजाय स्त्रियाँ विधुर पुरुषसे स्वयं अथवा अपनी लड़कीका पाणिग्रहण संस्कार न करने तथा पालने में झूलने लायक बाल-वरको अपनी बेटी देकर उसकी आहुति न देनेका दृढ़ निश्चय करें और करायें तो मुझे विश्वास है कि भारतके लिए इसका परिणाम मधुर होगा। छोटी-बड़ी सैकड़ों विधवाओंका उपयोग देशके निमित्त कैसे हो यह प्रश्न बहुत विचार करने योग्य है तथा इसपर शिक्षित स्त्रियाँ विचार नहीं करेंगी तो और कौन करेगा? अनेक वर्षोंसे एक विचार मेरे मनमें है; उसे यहाँ व्यक्त करता हूँ। थोड़े ही समय पहले हमारी स्त्रियाँ सूत कातने और बुननेका भी काम करती थीं। अब यह धन्धा खत्म होने पर है। इस धन्धेकी अवनतिसे हिन्दुस्तानको नुकसान पहुँचा है। करोड़ों रुपये बाहर भेज दिये जाते हैं। विधवाएँ अभी मन्दिरोंमें अथवा कथित साधु-सन्तोंकी सेवामें अथवा गप्पें हाँकनेमें अपना समय गँवाती हैं। मन्दिर जानेमें ही धर्म है, मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता। लेकिन सदुद्देश्यको दृष्टिमें रखकर मन्दिर जानेसे कुछ फायदा नहीं होता, मैं यह भी नहीं कहना चाहता। परन्तु अन्य कार्योंको छोड़कर मन्दिरमें बैठना परमार्थकी पराकाष्ठा है, यह विचार तो कोरा भ्रम जान पड़ता है। उसी प्रकार जिन साधु-सन्तोंको किसी प्रकारकी सेवाकी आवश्यकता नहीं है उनके पास बैठे रहने से दोनोंकी ही हानि और व्यर्थका कालक्षेप है। ऐसी प्रवृत्तियोंसे विधवाओंको हटाकर हिन्दुस्तानका उपकार करनेकी पारमार्थिक प्रवृत्तिमें उन्हें फिर लगाना ही उनका शुद्ध पुनर्विवाह है। शिक्षित स्त्रियाँ ऐसा साहस क्यों नहीं करतीं? ऐसा काम