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२९. पत्र : मगनलाल गांधीको

मोतीहारी
नव वर्ष, सं॰ १९७४ [नवम्बर १५, १९१७]

आजके मंगल-प्रसंगपर तुम्हें मैं क्या दूँ? जिसकी तुममें मुझमें, बहुतोंमें कमी है, वही देनेका प्रयत्न कर रहा हूँ। वह मिल गया, तो सब कुछ मिल गया। जिसमें कुछ हो, वही दे सकता है। इस न्यायसे मैं क्या दूँ? हम एक साथ ही मांगें।[१]

मैं मनुष्य और देवताकी वाणी भले बोलूँ, पर मुझमें प्रेम न हो, तो मैं ढोल या खाली घड़ेके समान हूँ। भले ही मैं भविष्यवाणी कर सकूँ, मुझे पूर्ण ज्ञान हो, मुझमें पर्वतोंको खिसका सकनेकी श्रद्धा हो, पर प्रेम न हो, तो मैं तिनकेके बराबर हूँ। अगर मैं अपना सब कुछ गरीबोंको खाने के लिए दे दूँ और अपना शरीर भी जला डालूँ, पर मुझमें प्रेम न हो, तो मेरे कार्यसे कुछ भी लाभ न होगा।
प्रेम बहुत सहन करता है; जहाँ प्रेम है वहाँ दया है। प्रेममें द्वेषकी गुंजाइश ही नहीं, प्रेममें अहम्-भाव नहीं, प्रेममें मद नहीं, प्रेममें अयोग्यता नहीं, प्रेम स्वार्थी नहीं, प्रेम जल्दी नहीं चिढ़ता, प्रेमको दुष्ट विचार नहीं आते, प्रेम अन्यायसे प्रसन्न नहीं होता। प्रेम सत्यसे ही प्रसन्न रहता है, प्रेम सब-कुछ सहन करता है, सब-कुछ मान लेता है। प्रेम आशामय है, सब-कुछ सह लेता है। भविष्यवाणी झूठी हो जाती है, वाचा बन्द हो जाती है और ज्ञानका नाश हो जाता है; पर प्रेम कभी निष्फल नहीं होता।
जब मैं बालक था, तब बालककी तरह बोलता था। बालकके बराबर मेरी समझ थी और बालककी तरह सोचता था। जब बड़ा हुआ, तो मैंने बचपना छोड़ दिया। अभी तो हमपर पर्दा पड़ा हुआ है और हम धुँधला-धुँधला देखते हैं। बादमें तो हम आमने-सामने खड़े होकर देख सकेंगे। अभी तो मुझे थोड़ा ज्ञान है। फिर मैं जैसा जाना जाता हूँ वैसा भी जानूँगा। अन्तमें, श्रद्धा, आशा और प्रेम ये तीन चीजें ही स्थायी हैं। उनमें भी प्रेम श्रेष्ठ है।"

इसे पढ़ना, इसपर विचारना और फिर पढ़ना। इसकी अंग्रेजी पढ़कर हिन्दी करना। जैसे भी हो, घड़ीभर तो प्रेमकी खासी झाँकी ले लेना। मीराको प्रेमकी कटारी गहरी लगी थी, प्रेमकी वैसी कटारी हमारे भी हाथ लगे और हममें उसे

 
  1. देखिए १ कॉरिन्थियन्स, अध्याय १३। गांधीजीने इसे गुजरातीमें दिया था। यहाँ उसीका हिन्दी अनुवाद किया गया है।