पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

४३. पत्र : एस्थर फैरिंगको[१]

मोतीहारी
चम्पारन
दिसम्बर १२, १९१७

प्रिय एस्थर,

तुम्हारा पत्र अभी-अभी मिला; पढ़कर दुःख हुआ। तुम्हें लिखते समय एक पंक्ति याद आ रही है, "किसी भी वस्तुके प्रति आसक्ति न रखो। यह व्यग्रता किस लिए? इन दिनों तुम संकटोंसे होकर गुजर रही हो। मुझे यकीन है तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। फिलहाल तुम्हारा स्पष्ट कर्त्तव्य यही है कि जिन लोगोंके हाथ में तुमने अपनी गतिविधियोंकी बागडोर सौंप रखी है, उनकी आज्ञाओंका पालन करो। तुम्हें उसी वक्त उनके विरुद्ध जाना उचित है, जब वे स्पष्ट रूपसे तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधक बनें। जबतक इस बातमें सन्देह हो तबतक उन्हें दोषी मत मानो। अलबत्ता तुम उन लोगोंसे समझाकर कह सकती हो कि अहमदाबादका मौसम इन दिनों बड़ा सुहावना होता है; वहाँ मेरी सार-सँभाल, बड़े स्नेहके साथ की जायेगी, और मैं वहाँ हर प्रकारसे निश्चिन्त रहूँगी। स्थानके परिवर्तन-भरसे लाभ हो जायेगा। यदि तिसपर भी उनका विरोध बना रहे तो उसे समभावसे स्वीकार कर लो। परीक्षाकी फिक्र मत करो—वह तो एक बिलकुल मामूली चीज है। सबसे बड़ी परीक्षा तो तब होती है, जब हमारे पवित्र उद्देश्योंकी प्राप्तिके मार्गमें बाधाएँ पहुँचाई जाती हैं। ईश्ववरकी गति न्यारी और बुद्धिसे परे है। हमें यह मानकर चलना चाहिए कि मनुष्यकी कोई बिसात नहीं, परमात्माकी मर्जी ही सब-कुछ है। मुझे बराबर पत्र लिखती रहो। इस वर्षके अन्त तक मोतीहारीके पतेसे भेजना। यदि यह पत्र पाने तक तुम्हारा मन उद्वेग-रहित हो चुका हो तो तुम उसकी सूचना तार द्वारा भी दे सकती हो—मुझे अच्छा लगेगा।

सस्नेह,

तुम्हारा,
बापू

[अंग्रेजीसे
माई डियर चाइल्ड
 
  1. एस्थर फैरिंग "डेनिश मिशनरी सोसाइटी" के कर्मचारी-मण्डलकी एक सदस्याकी हैसियतसे सन् १९१६ में भारत आई थीं। उन्हें शिक्षण-कार्य सौंपा गया था। सन् १९१७ में वे साबरमती आश्रम आई, और उससे बहुत प्रभावित हुई। उनकी संस्थाने यह बात नापसन्द की कि वे गांधीजीसे सम्पर्क बढ़ायें था उनके साथ पत्र-व्यवहार करें। संस्थाके अधिकारियोंने उनको साबरमती आश्रममें अपनी बड़े दिनकी छुट्टियाँ बितानेकी अनुमति नहीं दी। थोड़े दिनों बाद सन् १९१९ में उन्होंने मिशनका काम छोड़ दिया और कुछ अरसेके लिए साबरमती आश्रममें आकर भी रहीं। गांधीजीने उन्हें २० वर्षों में जो पत्र लिखे थे, वे सन् १९५६ में माई डियर चाइल्ड नामसे पुस्तकके रूपमें प्रकाशित हुए।