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५०. पत्र : अम्बालाल साराभाईको

मोतीहारी
दिसम्बर २१,१९१७

प्रिय भाई अम्बालालजी,

व्यापारके आपके कार्यके बीचमें पड़नेकी जरा भी इच्छा नहीं होती। फिर भी भाई कृष्णलालका[१] पत्र आज मिला है; वह ऐसा है कि मुझसे लिखे बिना नहीं रहा जा सकता। मेरा खयाल है कि श्रीमती अनसूयाबहनकी[२] खातिर भी जैसे बने बुनकरोंको सन्तुष्ट करना ही चाहिए। यह माननेका कोई कारण नहीं कि इन्हें सन्तुष्ट करनेसे दूसरे शोर मचायेंगे। ऐसा हो तो भी समयपर उचित कदम उठाया जा सकता है। मिल-मालिक मजदूरोंको दो पैसा अधिक देकर खुश क्यों न हों? उनका असन्तोष दूर करनेका एक ही राजमार्ग है : उनके जीवनमें प्रवेश कीजिये और प्रेमरूपी रेशमकी डोरसे उन्हें बाँधिए। हिन्दुस्तानके लिए इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। देशकी भलाईके लिए यदि पैसेका उपयोग करोगे तो वह अवश्य फल लायेगा। भाई, बहनका दिल दुखानेका कारण कैसे बन सकता है? और वह भी अनसूया-जैसी बहनका। मैंने तो उनकी आत्माको अत्यन्त पवित्र पाया है। उनका वचन आपके लिए आदेश बन जाये, तो यह भी अधिक नहीं होगा। इस प्रकार आपपर तो दोहरा बोझा है। कार्ययकर्त्ताओंको खुश करना और बहनका आशीर्वाद लेना। मेरी धृष्टता भी दोहरी है। मैंने एक ही पत्रमें व्यापार और कौटुम्बिक व्यवहार दोनों में दखल दिया है। मुझे क्षमा कीजियेगा।

मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

५१. पत्र : एच॰ कैलेनबैकको[३]

मोतीहारी
दिसम्बर २१, १९१७

प्रिय मित्र,

इधर कुछ दिनोंसे ढर्रा बिगड़-सा गया है। मैं इतना घूम रहा हूँ कि स्नेहपत्र लिखनेका अवकाश ही नहीं मिलता, खास तौरपर तब जब वे खो जाते हैं। पिछले

 
  1. कृष्णलाल एन॰ देसाई; अहमदाबादके एक सार्वजनिक कार्यकर्त्ता गुजरात-सभाके एक मन्त्री।
  2. अम्बालाल साराभाईकी बहन।
  3. हरमान कैलेनबैक, जर्मन वास्तुकार। दक्षिण आफ्रिकामें गांधीजीके सहयोगी। ये भी गांधीजीके साथ ही दिसम्बर १९१४ में भारत आनेवाले थे। लेकिन महायुद्ध छिड़ जानेके कारण उन्हें पासपोर्ट नहीं मिला और वे इंग्लैंडमें नजरबन्द कर दिये गये थे। देखिए आत्मकथा खण्ड ४, अध्याय ३३ और खण्ड ८, पृष्ठ १४३।