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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


उसके बाद उन्होंने निम्नलिखित अध्यक्षीय भाषण[१] दिया:

मित्रो,

आपने मुझे जो सम्मान दिया है उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। इस सभाकी अध्यक्षताके निमन्त्रणके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था। मैं नहीं जानता कि मैं इस कार्यके लिए उपयुक्त भी हूँ। मैंने राष्ट्रीय सभा-सम्मेलनोंमें हिन्दीका उपयोग करनेका निश्चय किया था। तभीसे मेरी इच्छा सदैव यह रहती है कि मैं अंग्रेजीमें न बोलूँ। किन्तु में अनुभव करता हूँ कि मेरे लिए अध्यक्षीय भाषण हिन्दीमें देनेकी अनुमति माँगनेका समय अभी नहीं आया है। इसके अतिरिक्त मैं सम्मेलनोंमें अधिक विश्वास भी नहीं करता। समाज-सेवाको यदि फलदायी बनाना हो तो वह मौन रहकर ही की जानी चाहिए। जब किसीको उसका पता कानों-कान भी न चले तभी वह सर्वोत्तम होती है। सर गिबलके कार्यको कोई भी नहीं जानता था; इसीलिए उसका प्रभाव हुआ। वे न तो प्रशंसासे बिगड़ सके और न निन्दासे रुक सके। यदि हमारी सेवा भी इसी तरहकी होती तो कितना अच्छा होता। ये विचार रखते हुए भी मैंने स्वागत-समितिके आदेशका पालन किया। यह बात नहीं कि ऐसा करते हुए मेरे मनमें बहुत-कुछ हिचक और शंका न हुई हो। इसलिए यदि आप यह देखें कि मैं सम्मेलनको आत्मविश्वास एवं निष्ठाके साथ उसके लक्ष्य तक पहुँचानेके योग्य पर्याप्त आग्रह नहीं दिखाता बल्कि इसकी अपेक्षा उसकी स्पष्ट आलोचना करता हूँ तो इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे।

फिर, मैं समझता हूँ कि यदि मैं आपका ध्यान समाज-सेवाकी उन शाखाओंकी ओर आकर्षित करूँ जिनकी हमने अबतक न्यूनाधिक रूपसे उपेक्षा की है तो यह अत्यन्त उपयुक्त होगा।

समाजकी हम जो सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं वह यह है कि हमने अंग्रेजी भाषाकी शिक्षाके प्रति जो अन्धविश्वासपूर्ण सम्मान करना सीखा है उससे स्वयं मुक्त हों और समाजको मुक्त करें। अंग्रेजी हमारे स्कूलों तथा हमारे कॉलेजोंमें शिक्षाका माध्यम है। यह देशकी आन्तरभाषा बनती जा रही है। हमारे सर्वोत्तम विचार इसीमें व्यक्त किये जाते हैं। लॉर्ड चैम्सफोर्डने यह आशा व्यक्त की है कि अंग्रेजी कुछ ही दिनोंमें उच्च परिवारोंकी मातृभाषा बन जायेगी। अंग्रेजी प्रशिक्षणकी आवश्यकताके बारेमें इस प्रकारके विश्वासने हमें गुलाम बना दिया है। इसने हमें सच्ची राष्ट्रीय सेवाके अयोग्य बना दिया है। यदि हम स्वभावसे बाध्य न होते तो हम यह अवश्य ही देख सकते थे कि अंग्रेजीको शिक्षाका माध्यम बनानेके कारण हमारी प्रतिभा एकान्तिक हो गई है और हम जनतासे दूर जा पड़े हैं। इससे राष्ट्रका सर्वोत्तम मस्तिष्क निष्क्रिय हो गया है और जनताको नये उपलब्ध विचारोंका लाभ नहीं मिल पाया। हमने ये पिछले ६० वर्ष विचित्र शब्दों तथा उनके उच्चारणोंको सीखनेमें ही व्यतीत कर दिये, तथ्योंको

 
  1. यह अध्यक्षीय भाषण २७ दिसम्बरको सम्मेलनमें उद्घाटनके दिन दिया जाना था, किन्तु सम्मेलन स्थगित कर दिया गया था, देखिए "भाषण : अखिल भारतीय समाज-सेवा सम्मेलनमें", २७-१२-१९१७। फिर भी सम्मेलनके स्थगनकी उपेक्षा करके न्यू इंडियाने इसे अपने २८ दिसम्बरके अंकमें प्रकाशित कर दिया था। गांधीजीने इस सम्मेलनकी अध्यक्षता वाई॰ एम॰ सी॰ ए॰ भवनमें की थी और उसीमें यह भाषण दिया था।