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भाषण : अखिल भारतीय समाज-सेवा सम्मेलनमें

आत्मसात् नहीं किया। हमें अपने माता-पिताओंसे जो शिक्षा मिली थी उसके आधारपर हमने नया निर्माण नहीं किया है, बल्कि उस शिक्षाको ही लगभग भुला दिया है। इतिहासमें इस [मूर्खता] की तुलना नहीं है। यह एक दारुण राष्ट्रीय विपत्ति है। पहली और सबसे बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थितिसे पीछे हटें, देशी भाषाओंको अपनाएँ, हिन्दीको राष्ट्रभाषाके रूपमें उसके स्वाभाविक पदपर पुन: प्रतिष्ठित करें और सभी प्रान्त अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओंमें तथा राष्ट्रका कार्य हिन्दीमें प्रारम्भ कर दें। हमें तबतक विश्राम नहीं लेना चाहिए जबतक कि हमारे स्कूलों और कॉलेजोंमें हमें देशी भाषाओंके माध्यमसे शिक्षा नहीं दी जाती। हमारे लिए अपने अंग्रेज मित्रोंके निमित्त भी अंग्रेजीमें बोलना आवश्यक नहीं होना चाहिए। प्रत्येक अंग्रेज शासनिक तथा सैनिक अधिकारीको हिन्दी जाननी चाहिए। बहुतसे अंग्रेज व्यापारी हिन्दी सीखते हैं, क्योंकि उन्हें अपना व्यापार चलानेके लिए उसकी आवश्यकता होती है। ऐसा दिन अवश्य ही जल्दी आना चाहिए जब कि हमारी विधान सभाओंमें राष्ट्रीय मामलोंपर देशी भाषाओंमें या हिन्दीमें, जहाँ जो भी उपयुक्त हो, बहस की जायेगी। अबतक तो जनसाधारण उनकी कार्रवाईसे अपरिचित रहे हैं। देशी भाषाओंके समाचारपत्रोंने इस खराबीको दूर करनेका कुछ प्रयत्न किया है, किन्तु यह कार्य उनकी शक्तिसे परे है। "पत्रिका" का तीखा व्यंग तथा "बंगाली" का पाण्डित्य उन्हीं लोगोंके लिए है जिनके कान अंग्रेजीके अभ्यस्त हैं। सुसंस्कृत विचारकोंके इस प्राचीन देशमें ठाकुर[१] या बसु[२] या रायको[३] अपने बीच पाकर हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। फिर भी दुःखद तथ्य यह है कि यहाँ ऐसे लोग बहुत कम हैं। यदि मैंने ऐसे विषयकी, जो आपकी दृष्टिमें मुश्किलसे ही समाज-सेवाका अंग बन सकता है, चर्चा बहुत लम्बी कर दी है तो आप इसके लिए मुझे क्षमा करें। फिर भी मैंने इस विषयकी चर्चा प्रमुख रूपसे की है, क्योंकि मेरा विश्वास है कि हमारी शिक्षाके इस मूलभूत दोषके कारण सभी राष्ट्रीय प्रवृत्तियोंको वास्तविक क्षति पहुँचती है।

अब मैं समाज-सेवाके अधिक परिचित विषयोंकी चर्चा करता हूँ। इनकी सूची इतनी लम्बी है उसे सोचकर भय लगता है। मैं इनमें से केवल उन्हींको चुनूँगा जिनका मुझे कुछ ज्ञान है।

दुर्भिक्ष तथा बाढ़-जैसे कभी-कभी आनेवाले संकटोंमें कार्य करना निःसन्देह आवश्यक और अत्यन्त प्रशंसनीय है। किन्तु इससे कोई स्थायी परिणाम नहीं निकलता। समाजसेवाके ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें संभव है, प्रसिद्धिकी प्राप्ति न हो, किन्तु जिनसे स्थायी परिणाम निकल सकते हैं।

सन् १९१४ में ४६,३९,६६३ व्यक्ति हैजा, बुखार तथा प्लेगके शिकार हुए। यदि इतने लोग ऐसे युद्धमें, जो इस समय यूरोपका विनाश कर रहा है, मोर्चोपर मरते तो हमारी कीर्ति चारों ओर फैलती और स्वराज्यके प्रेमियोंको अपने उद्देश्यके समर्थनमें

 
  1. रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  2. जगदीशचन्द्र बसु
  3. प्रफुल्लचन्द्र राय

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