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भाषण : अखिल भारतीय समाज-सेवा सम्मेलनमें

अहिंसाके आदेशोंका अनुसरण करें, या ब्रह्मचर्यका पालन करें तो अन्तिम परिणाम अवश्यमेव अच्छा होगा। जिन लोगोंकी आध्यात्मिक दृष्टि धुँधली पड़ गई है वे भावी हितकी रक्षा करनेकी चिन्ता नहीं करते। उन्हें प्रायः वर्तमान हित ही दिखाई देता है। जो व्यक्ति हमें हमारी प्राचीन आध्यात्मिकतामें पुनः प्रतिष्ठित कर देगा वह सबसे बड़ी समाजसेवा करेगा। किन्तु चूँकि हम क्षुद्र मानव हैं, इसलिए हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है कि हम इस हानिको स्वीकार करें और ऐसे तरीकोंसे, जो हमारे सम्मुख हैं, उस व्यक्तिके लिए मार्ग तैयार करें जिसकी शक्तिसे हम अनुप्राणित हों और अपने विवेकके बलपर स्पष्ट अनुभव करने योग्य बनें।

अब एक दृष्टि विशिष्ट वर्गोंपर डालें। मैं देखता हूँ कि राजा-महाराजा अपने सम्पत्ति-साधनोंको तथाकथित बेकार खेलोंपर और शराबखोरीमें नष्ट कर रहे हैं। उन दिन मुझे बताया गया कि कोकीनकी कुटेवसे राष्ट्रका पौरुष नष्ट हो रहा है। यह कुटेव शराबखोरीकी लतकी तरह बढ़ती जा रही है और इसका प्रभाव शराबखोरीसे भी अधिक घातक होता है। समाज-सेवीके लिए इस बुराईकी ओरसे आँखें मूंद लेना सम्भव ही नहीं है। हममें पश्चिमका अन्धानुकरण करनेका साहस नहीं। हमारा राष्ट्र ऐसा है जिसका गौरव तथा आत्मसम्मान चला गया है। जब हमारी जनसंख्याका दसवाँ भाग लगभग भूखों मर रहा है तब हमारे लिए विलासितामें पड़नेका अवकाश ही कहाँ है। पश्चिमी देश जिस कार्यको हानिकी आशंकाके बिना कर सकते हैं, वह हमारे लिए विनाशकारी बन सकता है। जो बुराइयाँ समाजके उच्च वर्गको नष्ट कर रही हैं उनके निराकरणका उपाय करना एक साधारण कार्यकर्त्ताके लिए कठिन है। उनके प्रति कुछ हदतक हमारे मनमें आदरका भाव बन गया है। किन्तु ये बुराइयाँ इस सम्मेलनके क्षेत्रसे बाहर नहीं होनी चाहिए।

हिन्दू और मुसलमान दोनों जातियोंकी स्त्रियोंके दर्जेका प्रश्न भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। उन्हें अपने पतियोंके साथ पुनर्निर्माणमें पूरा भाग लेना चाहिए या नहीं लेना चाहिए? उन्हें मतदानका अधिकार अवश्यमेव दिया जाना चाहिए। अब हम उनसे गुड़ियों और दासियों-जैसा व्यवहार करते नहीं रह सकते। यदि ऐसा करेंगे तो समाज-रूपी शरीर सामाजिक अर्धांग रोगसे ग्रस्त रहेगा। और यहाँ फिर मैं सुधारकको यह सुझाव देना चाहता हूँ कि स्त्रियोंकी स्वतंत्रताका मार्ग शिक्षा नहीं है, बल्कि पुरुषोंके रुखमें परिवर्तन तथा तदनुरूप व्यवहार है। शिक्षा आवश्यक है, किन्तु वह स्वतन्त्रताके बाद आनी चाहिए। हम साहित्यिक शिक्षाके द्वारा अपने स्त्री समाजको उपयुक्त स्थानपर पुनः प्रतिष्ठित किये जाने तक नहीं ठहर सकते। साहित्यिक शिक्षाके बिना भी हमारी स्त्रियाँ संसारके अन्य सभी देशोंकी स्त्रियोंके समान ही सुसंस्कृत हैं। इसका उपचार बहुत कुछ उनके पतियोंके हाथोंमें है।

जब मैं देशमें भ्रमण करता हूँ और निर्जीव मांसहीन और चमड़ेमें से उभरी हुई पसलियोंके बैलोंको बोझसे लदी गाड़ियाँ खींचते हुए या खेतमें हलमें जुते हुए देखता हूँ तो मेरा खून खौलने लगता है। अपने मवेशियोंकी नस्लको उन्नत करने, उन्हें उनके गोपूजक स्वामियोंके क्रूर व्यवहारसे मुक्ति दिलाने तथा कसाईखानोंसे उनकी रक्षा करनेसे