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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

असन्तोष और क्षोभका भाव प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। मुसलमान, और मुसलमान ही क्यों हिन्दू भी, उनकी नजरबन्दीसे बहुत नाराज है। मेरा विश्वास है कि यह स्वस्थ भावना नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुसलमान बहुत क्षुब्ध है। मेरा विश्वास है कि दोनों भाइयोंकी रिहाईसे यह भावना काफी हदतक शान्त हो जायेगी। जबतक युद्ध चलता रहेगा तबतक इससे सम्पूर्ण रूपसे शान्ति नहीं होगी। अली-भाइयोंकी रिहाईके सम्बन्धमें लीगने जो प्रस्ताव पास किया है मुझे उसका समर्थन करनेका गौरव प्राप्त हुआ था।[१] जब उनकी माताका भाषण पढ़ा जा रहा था, श्रोतागण रो रहे थे।

मैं सरकारको उनके भावी आचरणके सम्बन्धमें समुचित आश्वासन दिलानेके लिए तैयार हूँ। मैं अनुभव करता हूँ कि स्वस्थ सार्वजनिक जीवनके लिए यह आवश्यक है कि या तो दोनों भाइयोंको छोड़ दिया जाये या उनपर उचित रूपसे मुकदमा चलाकर उन्हें सजा दी जाये। इस समय सार्वजनिक रूपसे मुकदमा चलाने और उससे सम्बद्ध परिणामोंके खतरेको मैं भलीभाँति समझता हूँ। किन्तु तब यह भी निश्चित है कि उन्हें लगातार बन्दीगृहमें रखना भी कम खतरनाक नहीं है। इसलिए मेरा सुझाव है कि मुझे छिन्दवाड़ा जाकर अली-भाइयोंसे मिलनेकी अनुमति दी जाये। उनकी राज-भक्तिके बारेमें मैं उनसे एक सार्वजनिक घोषणा कराऊँगा, जिसके आधारपर, मेरे नम्र विचारमें, सार्वजनिक शान्तिको जोखिममें डालनेका खतरा उठाये बिना उन्हें छोड़ा जा सकता है।

इसके अलावा, इतना और कह दूँ कि मेरा अली-भाइयोंसे घनिष्ठ परिचय है। अपने धर्ममें उनकी गहरी आस्था है और इतनी ही गहरी आस्था भारतके प्रति भी है। मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि वे मेरे सामने ऐसा वक्तव्य नहीं देंगे जिसपर चलनेके लिए वे पूर्ण रूपसे सहमत न हों। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि मैंने जिस अनुमतिकी प्रार्थना की है, वह मुझे दे दी जायेगी। क्या आप मेरी इस प्रार्थनाको परमश्रेष्ठके सामने रखनेकी कृपा करेंगे? कहनेकी आवश्यकता नहीं कि यदि दिल्ली में मेरी उपस्थितिकी आवश्यकता हो तो मैं बड़ी खुशीसे शीघ्र ही वहाँ आ जाऊँगा। इस मासकी १० तारीख तक मेरा पता अहमदाबादका होगा और १३ तारीखके बाद मोतीहारी, चम्पारन।

हृदयसे आपका,

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ६४२४) की फोटो-नकलसे; तथा नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया: होम, पोलिटिकल (डिपोजिट) : जनवरी १९१८, सं॰ ३१ से भी।

 
  1. मुस्लिम लीगके १९१७ में हुए कलकत्ता-अधिवेशनमें।